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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


वह तो बाद में अब्दुल गफ्फार चौधुरी ने मेरे विस्मय का निराकरण करते हुए वताया, “भई, यह ख़बर, दाऊद हैदर ने खुद ही रॉयटर को दी है। उसी ने जानकारी दी है कि तमने उससे विवाह कर लिया है।"

"उसने ऐसी झूठी खबर क्यों दी?"

"वजह बिल्कुल सीधी-सादी है।"

"वो कैसे?"

"देश उसे भी छोड़ना पड़ा था! तुम्हें भी! लेकिन विदेश में तुम्हें इतनी ख्याति मिल रही है, इतना नाम हो गया है, जवकि वह अनाम रह गया इसलिए वह चाहे जैसे भी हो, नाम कमाना चाहता है। उसका नाम किसी-न-किसी चतुराई से छप तो गया न! उस शख्स से तुमने विवाह कर लिया है-उसका नाम तो हुआ! बड़ी चालाकी से उसके बारे में यह खबर भी प्रचारित हो गई कि उसे भी इसी वजह से वांग्लादेश छोड़ना पड़ा है।"

इस तरह की चतुराई देखकर मेरे तन-बदन में झुरझुरी फैल जाती है। इंसान इतना बेईमान कैसे हो पाता है? मुझे कई महीनों तक कटर उड़ान पड़ा! मैंने जिंदगी में झूठ के बहुतेरे वीभत्स चेहरे देखे हैं! ऐसा कुरूप चेहरा पहले कभी नहीं देखा था। खैर, उम्मीद है, इस खबर केक प्रचार के बाद दाऊद हैदर की आत्मा को चैन मिल गया होगा।

बंगालियों के और भी कई-कई झूठ का शिकार होना पड़ा है मुझे। निताली मुखर्जी की दीदी श्यामली स्वीडन में रहती हैं। एक बार ढाका जाकर वे मुझसे मिली भी थीं। उन्हें मेरा लेखन काफी पसंद है। स्वीडिश पेन क्लब के जरिए उन्होंने मुझसे संपर्क किया और मुझसे मिलने का कार्यक्रम बनाया। मैं सचमुच बेहद उत्साहित हो उठी। उन्होंने आकर फर्माइश की कि उनके छोटे भाई, दिलीप ने स्वीडन से राजनैतिक आश्रय माँगा है, लेकिन उसे आश्रय नहीं मिला। अब एकमात्र सहारा मैं ही हूँ। अगर मैं यह कह दूँ कि हाँ, मैं दिलीप को जानती-पहचानती हूँ। चूँकि वह हिन्दू है, इसलिए उसे बांग्लादेश में टिके रहने में परेशानी हो रही है। अगर मैं सिफारिश कर दूं, तो उसे इस देश में राजनैतिक आश्रय मिल जाएगा।"

कुछ ही दिनों बाद पत्रकारों का फोन! वकील का फोन!

"दिलीप अगर बांग्लादेश वापस लौट जाए तो क्या उसे जान से मार डालेंगे?"

"मुझे नहीं मालूम!"

"चूंकि वह हिन्दू है, इसलिए क्या उसके लिए जान का कोई ख़तरा है?"

"अत्याचार तो खैर, हिन्दुओं पर ही हो रहा है। लेकिन, सभी लोग इस अत्याचार के शिकार हैं, ऐसा भी नहीं है।"

"आप क्या दिलीप को पहचानती हैं?''
 
"पहचानती हूँ।"

"उसकी माँ के बारे में कॉलम लिखा है आपने?''
 
"लिखा है!"

"लज्जा' में भी उन लोगो का ज़िक्र किया है?"

"काफी पुरानी बात है, ठीक-ठीक याद नहीं! शायद किया है।"

इसके बाद दिलीप को राजनैतिक आश्रय मिल गया।

लेकिन रतन! मरे वचपन का साथी, रतन, अब्बू के दोस्त का बेटा। स्वीडन में उसने मुझे पत्र लिखा। वैसे पत्र बदस्तूर विदेश मंत्रालय या स्वीडिश पेन के पते पर आया था। पत्र में लंवा किस्सा बयान किया गया था। उसने लिखा था कि वह देश में, मेरे लिए आंदोलन करता रहा; टांगाइल में वह मेरे पक्ष में सड़कों पर उतरा था। यह देखकर मुल्ले उस पर आग बबूला हो उठे और उसे जान से मार डालने के लिए पागल हो उठे। अंत में, वह जान बचाकर किसी तरह जर्मनी आ पहुँचा। अव उसकी माँग थी कि मैं उसके वकील से यह कह दूँ कि उसकी कहानी बिल्कुल सच्ची है।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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