जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
बहरहाल, बर्लिन में भी थोड़ी-बहत सरक्षा कम कर दी गई, लेकिन पूरी तरह कभी हटाई नहीं गई। सेमिनार होते रहे, कांफ्रेंस आयोजित होती रहीं, में वहाँ बोलने या पढ़ने जाती रही। बस, उन्हीं मौकों पर पुलिस मेरे साथ होती थी। चलो, यही गनीमत है। हर पल छाया की तरह साथ लगे रहने से बेहतर है. सचमच की जरूरत के वक्त मेरे साथ हो! अगर किसी कार्यक्रम में मेरा भी नाम घोषित कर दिया जाए तो मुमकिन है, उस कार्यक्रम में कोई कट्टरवादी भी घुस आए और मुझे नुकसान पहुँचाए। चूँकि इस किस्म का ख़तरा हमेशा बना रहता है, इसलिए हर सार्वजनिक कार्यक्रम में मौजूद रहती थी। मुझे चीर-फाड़कर खा जाने के लिए बांग्लादेश के कट्टरवादियों की तरह ही, अन्य मुस्लिम देशों के कट्टरवादी या धार्मिक मंडली, एक पाँव पर खड़ी थी।
सुरक्षा हर देश में ही जोखिममुक्त नहीं होती। इटली में सुरक्षा को लेकर कैसा भयंकर कांड हुआ था! जब मैं पहली बार दक्षिणी इटली के पालेरमा हवाई अड्डे पर उतरी, करीब ही, झुंड-भर मस्तान खड़े मिले। वे लोग मुझे चोरी-छिपे देख रहे थे। मैं मारे दहशत के इधर-उधर दौड़ती-भागती रही। वे लोग भी मेरे पीछे-पीछे दौड़ते रहे। मैं हवाई अड्डे के अंदर मौजूद लोगों से मदद माँगती फिरी। उन मस्तानों ने मुझे झट से पकड़ लिया और मुझे लगभग खींचते-घसीटते हवाई अड्डे से बाहर ले गए। असल में वे लोग पुलिस थे। मेरी सुरक्षा के लिए तैनात! मुझे अपनी गाड़ी में ठूसकर, दो सौ मील की रफ्तार से अपनी गाड़ी दौड़ाते रहे। सड़क के राहगीरों की तरफ निशाना साधे, वे लोग अपनी-अपनी स्टेनगन की नोंक गाड़ी की खिड़की से बाहर निकाले रहे। पुलिस जैसे दरवाजे पर लात मारकर, कमरे के अंदर किसी मुजरिम को पकड़ने के लिए घुसती है, बिल्कुल उसी तरह होटल पहुँचकर कमरे का दरवाजा उन लोगों ने लात मारकर खोला। यह देखकर मुझे भयंकर गुस्सा आ गया था। अगर मेरा वश चलता तो मैं उन सबको लात मारकर खदेड़ देती। ये मस्तान पुलिस चिप्पी लगी फैशनेबल जीन्स पहने, हाथ की उँगलियों में रिवॉल्वर घुमाते हुए, सड़कों पर मेरे साथ-साथ चलते हैं। बाद में मैंने सुना कि इन पुलिस वालों में माफिया के लोग भी शामिल थे। पता नहीं, मेरे अंगरक्षकों में शायद चंद माफिया भी थे। वैसे कुछ दिन गुज़रते-न गुज़रते उन लोगों से मेरी गहरी दोस्ती भी हो गई थी। उन पुलिस वालों में कोई अंग्रेजी का एक शब्द भी कोई नहीं जानता था। वे लोग मुझसे जी भरकर इतालवी बोलते थे, जिसका एक शब्द भी मेरी समझ में नहीं आता था और मैं भी जी भरकर अंग्रेजी बोलती थी। एक-दूसरे की भाषा न समझते हुए भी एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील हुआ जा सकता है। वाद में ये पुलिस वाले ही मुझे खींच-खांचकर ले गए और मेरी खूब सारी तस्वीरें उतारी। पहाड़ से टिकी हुई मैं! समुंदर में घुटनों-घुटनों खड़ी मैं! इन्हीं लोगों ने बाद में स्टेनगन थामे, राहगीरों की ओर निशाना लगाना छोड़ दिया।
जर्मनी में बिआटे पर तो मैंने भयंकर गुस्सा भी कर दिया।
लाल बालों वाली महिला-पुलिस ने एक दिन बातों ही बातों में कहा, "आज मुझे जल्दी घर लौटना है। घर में साँप मेरी राह देख रहे होंगे। बिचारे रो रहे होंगे।"
मेरी आँखें आतंकित हो उठीं।
"साँप?"
"हाँ, साँप!"
मैं छिटककर ज़रा परे हट गई।
"हाँ, ज़रूर!"
“यह तुम कैसी बातें कर रही हो? तुम्हें डर नहीं लगता?"
"तुम? साँप लेकर क्या करती हो?"
"मेरे पास दो साँप हैं। वे दोनों मुझे बेहद प्यार करते हैं। मैं भी उन दोनों को बेहद प्यार करती हूँ। वे दोनों ही मुझसे लिटपकर सोते हैं। मुझे अगर घर लौटने में देर हो जाती है तो वे बेहद उदास हो जाते हैं।"
“तुम जब उनको अपने से लिपटा लेती हो, तो साँप तुम्हें काटते नहीं? वे ज़हरीले नहीं हैं? वे फूफकारते नहीं?"
मेरा सवाल बिआटे को पसंद नहीं आया। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
उसने इधर-उधर देखते हुए, काफी देर बाद बेहद शांत लहजे में कहा, “वे साँप बेहद भले हैं।"
मैं उत्तेजित लहजे में बोलती रही, “दुनिया में मैं एक ही जीव से बेहद डरती हूँ और उससे बेहद नफरत भी करती हूँ। वह है-साँप!"
बिआटे ने मेरी तरफ क्रोध-भरी निगाहों से देखा।
उसने दाँत किटकिटाते हुए कहा, "तुम्हारा तो दिमाग खराब है।"
उस दिन वह मेरे साथ नहीं रही, अपने घर चली गई। उसके बाद उसने मेरी ड्यूटी ही छोड़ दी। उसने आला कमान से कहकर किसी और जगह अपने लिए ड्यूटी ले ली। मुझ जैसी नाचीज़ लड़की से जो साँप से प्यार नहीं करती उसे सुरक्षा देना, बिआटे के लिए संभव नहीं था।
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