जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
अगले दिन सुबह जैसे ही पुलिस मेरे घर आई, मैंने यह प्रसंग छेड़ दिया।
"मुझे किसी पुलिस की ज़रूरत नहीं हैं।"
"आप कहना क्या चाहती हैं?"
"मैं यह कहना चाहती हूँ कि मैं अकेली ही आ-जा सकती हूँ। आप लोगों को यहाँ आने की कोई ज़रूरत नहीं है।''
"ऐसा तो हो नहीं सकता। आप यह वताएँ कि आपको परेशानी क्या है? हम क्या आपके लिए सुरक्षा का ठीक-ठाक इंतज़ाम नहीं कर रहे हैं?"
“कर रहे हैं। आप लोग बेहद भलेमानस हैं। आप लोगों के आचार-व्यवहार देखकर, मैं मुग्ध हूँ! लेकिन मुझे पक्का विश्वास है कि मुझे सुरक्षा की कोई ज़रूरत नहीं है। यह सुरक्षा मुझे निहायत फालतू लगती है।"
"यह सब हम लोगों से कहने से कोई फायदा नहीं होगा। आप हमें लिखित रूप में कुछ दीजिए। हमारे आला कमान को बताएँ। फिर देखिए, वे क्या फैसला करते हैं।"
“ठीक है! मैं लिख देती हूँ।" इतना कहकर मैंने सख्त-सा एक ख़त लिख दिया-
आप लोगों ने मुझे ढेर-ढेर दिया है, थैंक यू वेरी मच! अव मुझे अकेला छोड़ दें। अगर मैं अकेली न चलूँ-फिरूँ तो मैं लेखिका के तौर पर जिंदा नहीं रह पाऊँगी। मुझे अपनी मर्जी-मुताबिक, लोगों से मिलने-जुलने दें। अगर मेरे अनुरोध के बावजूद, आप लोग मुझे पहरेदारी और निगरानी में रखना चाहते हैं तो मेरा लिखना-पढ़ना, हमेशा के लिए बंद हो जाएगा, कहे देती हूँ। अभी जो आप लोग, मेरी लेखिका होने पर गर्व करते हैं, बाद में नहीं कर पाएंगे! मैं आज़ादी चाहती हूँ, संपूर्ण आज़ादी। मेरी गर्दन पर कोई लगातार साँस-प्रश्वास लेता रहे, इस जैसा दुःस्वप्न और कोई नहीं।
ये अंगरक्षक भी इंसान हैं, इनके पास भी दिल मौजूद है, इसका मुझे हमेशा अहसास होता रहा है। मुझे कहीं, कोई भी ऐसा अंगरक्षक नहीं मिला, जो मेरे प्रति श्रद्धाहीन रहा हो। वे लोग ही मेरे सबसे करीबी इंसान रहे हैं। उन लोगों से ही हर रोज़ मेरी भेंट होती रही, वैचारिक आदान-प्रदान होते थे। उन्हीं पुलिस अधिकारियों के जरिए ही मैंने पश्चिम के बारे में ढेरों जानकारी हासिल की है। उन लोगों के साथ ही मैंने लंबा वक्त गुज़ारा है। वे लोग इस कदर मेरे अपने हो उठे थे कि अपने घर का सारा हाल-समाचार मुझे दिया करते थे। दुनिया के विभिन्न देशों में विभिन्न अंगरक्षकों ने मुझे बताया है कि मुझे सुरक्षा देकर उन्हें बेहद खुशी हुई है। उन लोगों के लिए मैं तारिका रही हूँ। मैं उन लोगों के लिए बेहद कीमती इंसान हूँ। इन अंगरक्षकों से मैंने छुटपुट बहुत सारी बातें सीखी हैं। स्वीडन में मेरे अंगरक्षक ने मुझे जूते का फीता बाँधना सिखाया था। स्पेन के अंगरक्षक ने मुझे गले में स्कार्फ बाँधना सिखाया था। फ्रांस में जब सबसे कठोर सुरक्षा-फौज 'रेइड' मेरी सुरक्षा में उतरी थी, तब रेइड के ही सबसे बड़े अफसर ने मेरे प्रधान अंगरक्षक की जिम्मेदारी सँभाली थी। मुझ पर कौन-से कपड़े अच्छे लगेंगे, बाल इस तरह न सँवारकर, इस तरह से सँवारू तो मैं ज़्यादा अच्छी लगूंगी, यह सब बताते रहते थे। मैं उनकी सलाह के मुताबिक अपने बाल ठीक-ठाक करती थी, कपड़े बदलती थी। फ्रांस की सुरक्षा-फौज का प्रायः हर बंदा मेरी किताव खरीदकर, मुझसे दस्तखत कराता था। बहुतों ने कितावों पर अपनी बीवी या प्रेमिका या बेटी का नाम लिखवाया था। वे लोग जितने सहज भाव से मुझसे मिलते-जुलते रहे कि वे लोग खुद कबूल करते थे कि अन्य किसी तारिका के साथ वे यूँ हिल-मिल नहीं पाए। तारिकाओं में तो अहंकार कूट-कूटकर भरा होता है, सिर्फ मुझमें ही नहीं है। मैं उनके लिए बिल्कुल घर जैसी हूँ! बेहद अपनी!
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