जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
इसे वह मैथुन कहकर सुख पाती थी, लेकिन अगर गौर से देखा जाए, तो दानियल मेरे स्वमैथून में मेरी मदद करती थी। वस, इतना ही। बहरहाल मुझे इसे मैथुन कहने में झिझक होती थी। क्योंकि दानियल मेरी देह का अंग-अंग जिस प्यास के साथ चूमती थी, उस प्यास से उमड़कर मैं उसे छूती भी नहीं थी। मेरे हाथ या होंठ, उसके स्तन से नीचे उतरना ही नहीं चाहते थे। वह मुझसे जितना भी इसरार करती, तजुर्बे देने की जिद पर आ जाती मगर मुझसे यह सब होता ही नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि मैंने दो-एक बार कोशिश नहीं की, लेकिन नाकाम होकर लौट आई। अगर सुख का सवाल उठाया जाए। तो मैं कहूँगी कि ऐसा कभी एक दिन भी नहीं हुआ कि दानियल की उँगली और जुवान के स्पर्श से मैं नदी नहीं वनी या मैं चरम सुख में नहीं वही। काफी दिनों मुझे तो यह भी विश्वास हो चला था कि जिंदगी में किसी मर्द ने कभी मुझे इतना तीखा आनंद नहीं दिया। मर्द तो हमेशा ही औरत को अपने ऊपर निर्भर बनी रहने की कोशिश करते हैं। खासकर यौन-संपर्क के लिए, औरत चाहे जितनी भी स्वनिर्भर हो, वह हमेशा सोचती आई है कि वह मर्द के आगे आत्मसमर्पण करने को लाचार है। औरत पर अधिकार जमाने के लिए, मर्द का सबसे बड़ा क्षेत्र यही है-यही संगम! हालाँकि संगम का अर्थ है मिलन, लेकिन सच्चे अर्थों में यह कोई मिलन-विलन नहीं है। यह शर्त जैसा है। मैं तुम्हें यह देता हूँ, तुम मुझे वह दो। मैं तुम्हें खाना-कपड़ा देता हूँ, सुरक्षा देता हूँ। तुम मुझे जिस्म दो। सिर्फ जिस्म ही नहीं, बाकी जितना कुछ तुम्हारा है, वह सब मुझे दो। तुम मेरी जायदाद हो। तुम्हारा शरीर, तुम्हारा अंग-अंग, मैंने समागम के लिए खरीद लिया है। मैं ऊपर रहूँगा और तुम मेरे नीचे। तुम्हारी देह-यष्टि में अब कोई साध-आल्हाद नहीं रह सकता। तुम्हारी देह, बस, मर्द की इबादत करेगी! मैं ही हूँ वह मर्द! मेरे पुरुषांग का तुम चुंबन लो। पूजा करो। इस पुरुषांग के बिना तुम सुखी न रहोगी। तुम निःस्व, रिक्त हो! तुम गलीज हो! तुम असहाय हो! तुम अनाथ हो! यह पुरुषांग तुम्हें पहचान देता है, तुम्हें संसार देता है, तुम्हें संतान देता है। यह तुम्हें विनत करता है, विनम्र करता है! औरत, तुम चाहे कहीं भी जाओ, इस पुरुषांग के पास तुम्हें लौट-लौटकर आना ही होगा। यही तम्हारा जीवन है। हाँ. इस कत्सित परुषवादता के खिलाफ मर्द पर मेरी कोई निर्भरता नहीं है। पुरुष भले ही चाहे बाकी सब बातों में हार जाए, बस, एक संगम के लिए वह अभी भी अपने पर निर्भर कर सकता है। यही एक जगह है, जहाँ वह औरत को अपने अधिकार में ले लेता है। सबल से सबल औरत भी बस, यहीं आकर हार जाती है। पुरुषांग की जरूरत के आगे हार जाती है। एक सेक्स के अलावा मुझे मर्द की कोई जरूरत नहीं थी! दानियल को पाकर, मेरी वह जरूरत भी कोई विशेष जरूरत नहीं रह गयी थी।
मैंने खासा जोर देकर कहा, "मर्द ने कम कविताई नहीं की। स्तन, योनि, नितम्ब कम नहीं आँके, कम नहीं गढ़े। औरत की जुबान समझने की क्षमता रखता है? कौन कहता है कि वह औरत की अंतर्दाह में जलने की औकात रखता है? चूंकि औरत ही जख्म को पाँखों की तरह खोल-खोलकर देखना जानती है। अब चुंबन के लिए औरत को ही अपने होंठों, स्तनों तक उतारना होगा। औरत की सजल उँगलियों से ही औरत को अपना योनिफूल खिलाना होगा। औरत के अलावा और किसमें इतनी ताकत है कि औरत को चरम प्यार दे। अव मुझे ही लें, मैं औरत हूँ! औरत के लिए मैंने अपना अंदर-बाहर उन्मुक्त कर दिया है।
दानियल ने मुझे चरम सुख दिया। निपुण कलाकार की तरह उसने मेरे शरीर का कण-कण, अपने चुंबनों से भिगो दिए, लेकिन उसे चरम सुख, कभी बूंद-भर भी नहीं दे पाई। समलैंगिक होने के लिए, जिस योग्यता की जरूरत होती है, सच पूछे तो वह हुनर मुझमें नहीं है। मर्द के यौनांग को जुबान से न छुएँ, तो चलता है, समलैंगिक औरतों को जुबान की आदत होती है, लेकिन मेरी जुबान हमेशा अचल रहती है। न औरत के यौनांग तक जाती है, न मर्द के! लेकिन, एक वक्त ऐसा भी आया, जब मर्दों के मामले में अभ्यस्त हो गई।
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