जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
इस मोहतरमा ने पहले कभी इतनी विशाल भीड़ का सामना किया है? या अनवाद करने के लिए कभी मंच पर आयी है? यह ऐसा मंच था, जिसकी तरफ लाखों लोगों की निगाहें गड़ी हुई थीं। इस मंच की सारी गतिविधियों का यूरोप के कई टेलीविजन और स्वीडन के राष्ट्रीय चैनल पर सीधा प्रसारण हो रहा था। ना, लगता है, इन्होंने जो अनुवाद किया है, वह बांग्ला से स्वीडिश में भले हो, लेकिन वांग्ला से अंग्रेजी में कभी नहीं किया। अस्तु, गड़बड़ी तो होगी ही! कृष्णा दत्त की कलाइयों में सिर्फ शाखा और पॅला ही नहीं, लोहा भी चमक रहा था। अपने पति का अमंगल, वह हरगिज नहीं होने देगी। उसी दिन, उससे पहली मुलाक़ात आखिरी मलाक़ात हो सकती थी, लेकिन मेरी ही वजह से हमारा रिश्ता, गोंद की तरह एक-दूसरे से चिपका रहा।
नरस्टेड से मेरी किताब प्रकाशित होनी थी। नरस्टेड किताब का अनुवाद फ्रेंच भाषा से कराएगा, अंग्रेजी से नहीं। एलिजाबेथ उले चूँकि फ्रेंच जानती थी, इसलिए अनुवाद वही करेगी। चलो, अच्छी बात है। फ्रेंच में किताब प्रकाशित हो चुकी थी, फ्रांस की बेस्टसेलर किताबों में उसका नाम भी शामिल था। मैं इतना सब नहीं देखती। मेरा कहना था, फ्रेंच भाषा से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया गया था, लेकिन यह तो तय नहीं हुआ था। 'लज्जा' किताब का कवर उतारकर उस पर दूसरा कवर चढ़ाकर उनको भेजा गया था, ताकि बांग्लादेश पोस्ट ऑफित का कोई बंदा यह समझ न पाए कि इसमें 'लज्जा' किताब मौजूद है। लेकिन 'लज्जा' की बांग्ला प्रति भेजने से फायदा क्या हुआ? फ्रेंच प्रकाशक को चूँकि बांग्ला से फ्रेंच में अनुवाद करने वाला कोई नहीं मिला, इसलिए उसने अंग्रेजी से ही अनुवाद करा लिया। इस बीच, मैंने 'लज्जा' का वांग्ला और अंग्रेजी संस्करण मिलाकर देखा, टुटुल सरकार ने कुछेक भूले की थीं, जो भयंकर थीं।
मैंने सूयान्ते से कहा, "तुम लोग बांग्ला से अनुवाद कराओ। फ्रेंच में कई भूलें रह गयी हैं। बांग्ला से अनुवाद कराया जाए, तो किससे कराएँगे? कोई स्वीडिश क्या बांग्ला जानता है?
अस्तु, कृष्णा दत्त! ठीक है, वह महिला वांग्ला से अंग्रेज़ी अनुवाद भले न कर पायी हो, बांग्ला से स्वीडिश की समझ तो होगी उन्हें? यह तय हुआ कि एलिजावेथ फ्रेंच से अनुवाद करेगी, लेकिन एलिजाबेथ के अनुवाद में कहीं भूल तो नहीं रह गयी, कृष्णा उसे बांग्ला किताब से मिलाकर देख लेगी। इसलिए मेरे अनुरोध या माँग पर अनुवाद का काम दो लोग करने लगे। कृष्णा को इसके लिए मोटी रकम मिलने लगी। चलो, मिलने दो। कम-से-कम किताव तो सही हो।
मैंने सूयान्ते से कहा, “लज्जा के बजाय, आप मेरी और कोई किताब छाप सकते थे।"
सूयान्ते ने जवाब दिया कि “पहले वे लज्जा छापेंगे। उसके बाद वाकी किताबें प्रकाशित करेंगे।"
मैं यह बात बखूबी समझ गयी कि चूँकि 'लज्जा' किताब काफी मशहूर हो चुकी है, इसलिए सभी प्रकाशक इसकी माँग कर रहे हैं। मशहूर क्यों हुई? कुछेक पत्रकारों ने अंदाज़ा लगाया कि सलमान रुशदी के फतवे के पीछे, जैसे एक किताब का मामला था, वैसे ही मेरे फतवे के पीछे ज़रूर कोई किताब ही होगी। कौन-सी किताब, किस बारे में किताब, यह पता करते-करते उन्हें ज्ञात हुआ कि कुछ ही दिनों पहले सरकार ने मेरी एक किताब पर प्रतिबंध लगाया था। बस, उन लोगों ने झट यह मान लिया कि जरूर 'लज्जा' नामक किताब के लिए ही मुल्लाओं ने मेरे सिर पर मुल्य की घोषणा की होगी। बस, हंगामा मच गया! तहलका मच गया-लज्जा! लज्जा! लज्जा!
'लज्जा' भारत में बिकने लगी। बीजेपी ने ही इसे छपाया और बेचने लगी, इसकी ख़ास वजह थी। यह फतवा देने या मुल्लाओं द्वारा मेरी फाँसी की माँग का मामला नहीं था। इसकी वजह उनका राजनैतिक स्वार्थ था। उन्हें दिखाना था-देखो, बांग्लादेश में हिंदुओं पर कितना अत्याचार हो रहा है। उपमहादेशों में चूंकि हिंदू-मुसलमान दंगे काफी अहम विषय है, इसलिए इस किताब की भी अहमियत है और यह स्वाभाविक भी है। मेरा यह मतलब हरगिज नहीं है कि यह किताब उपन्यास के नज़रिए से काफी विराट अहमियत रखती है। अहमियत इसलिए है कि इस किताब में काफी सारे तथ्य मौजूद हैं। धर्म की वजह से इंसान को कब और किस रूप में शोषित और अत्याचार का शिकार होना पड़ता है, इनके तथ्यों की खोज हो, तो 'लज्जा' की ज़रूरत पड़ सकती है, लेकिन पश्चिम के पाठक हिंदू-मुसलमान दंगों के बारे में क्या जानते हैं? कुछ भी नहीं जानते।
भारत के नाम पर व एक ही नाम समझते हैं-हिंदी! और हिंदी का मतलब हिंद समझते हैं। इन दो शब्दों में कौन भापा है, कौन धर्म, वे लोग तो इसमें ही फर्क करना नहीं जानते। हिंदू कौन हैं, क्या है इनकी राजनीति-ज्यादातर वे लोग कछ भी नहीं जानते। गाँधीजी का नाम बहुतों ने सुन रखा है। जिन लोगों का भारत में आना-जाना है, वे लोग आम लोगों से ज़रा ज़्यादा जानते हैं। सभी लोगों को दिल्ली, मंवई की जानकारी है। वांग्लादेश कहाँ है, ज़्यादातर लोगों को इसकी जानकारी नहीं है। कुछ-कुछ लोगों ने अगर इसका नाम सुना भी है, तो वे यह नहीं जानते कि यह देश ठीक कहाँ स्थित है। जो लोग इस देश का नाम जानते हैं, वे लोग इसलिए जानते हैं, क्योंकि जॉर्ज हैरिसन ने एक गीत गाया है, जिसमें बांग्लादेश का ज़िक्र आया है। कोई शायद इसलिए भी परिचित है, क्योंकि उसकी किसी बांग्लादेशी एमिग्रेट से शायद बातचीत हुई हो। फिर यहाँ 'लज्जा' के प्रकाशन का क्या तुक है? लोग अब मुझे पहचानने, जानने, मानने लगे हैं।
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