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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


बहरहाल, वहाँ देखना यह था कि मेरी अनुवादिका कौन-सी भमिका निभाती हैं? जब मैं सात वाक्य कहती थी, अनुवाद करते हुए वह सिर्फ एक जुमला कहती थीं।

मैंने कहा, "जो लड़कियाँ अपने अधिकारों के बारे में ज़रा भी सजग नहीं हैं, मैं उन्हें जागरूक करना चाहती हूँ। आज के समाज में सचेतन और आत्मनिर्भर औरतों की ही जरूरत है। औरतें परुष प्रधान व्यवस्था की (धार्मिक व्यवस्था का जिक्र टाल जाना पड़ा) निर्मम शिकार हैं। यह पुरुषतंत्र ही औरतों को पिछले हजारों वर्षों से यही शिक्षा देता आया है कि वे महज भाग की सामग्री हैं। उन्हें हमेशा झुककर रहना, विनम्र रहना, लल्जाशील होना सिखाता रहा। ये मर्द विरादरी औरतों को सतीत्व कायम रखने की सीख देती है। उन्हें यह बताते हैं कि मातृत्व में ही औरत-जन्म सार्थक है। किसी भी स्वस्थ-सचेतन इंसान का पहला कर्त्तव्य है, राष्ट्र और समाज की सभी विभिन्नताओं का विरोध करना।"

इन चार वाक्यों के बाद कुल्लमकुल अनुवाद जुटा-“द वीमेन आर अनप्रिविलेज्ड!" यह वाक्य कहते हुए आवाज़ काँपती हुई!

मैं उस कँपकँपाती आवाज़ को बेहद खौफ़ और विस्मय से देखती रही, "क्या हुआ? और आगे कहें! मैंने जो कहा, उसका पूरा-पूरा अनुवाद तो हुआ नहीं।"

जैसे मुझे इस भाषा की विल्कुल भी जानकारी नहीं है, इस मुद्रा में सिर हिलाते हुए, मोहतरमा ने मुस्कराकर कहा, “हो गया।"

"क्या हो गया?"

"अनुवाद!"

“मुझे तो ऐसा नहीं लगा।"

ओफ ओ! यह मेरी ही भूल थी। मेरा ही रचा हुआ फ्रान्केनस्टाइन, मुझे ही नोच-नोचकर खाने लगा। तुम विदेश में रहती हो, इसलिए तुम्हें अंग्रेजी भी आती हो, इसकी कोई वजह नहीं है। मैं लंबे-लंबे वाक्य कह रही थी। उसका अनुवाद वह एक पूरे या अधूरे वाक्य में निबटा रही थी। क्या निबटाती थी, यह तो वही जाने।
"मैं बांग्ला में जो कह रही हूँ, आप उसका पूरा अनुवाद क्यों नहीं कर रही हैं?"

जवाब में वह पत्थर की बुत बनी रही।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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