जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
सबरीना ने यह खबर बेहद निरुतप्त लहजे में दे डाली, जैसे इस किस्म की खून-हत्याओं की घटनाएँ तो यहाँ आम बात है, बिल्कुल दाल-भात! उन लोगों को इन सबकी आदत पड़ चुकी है। कौन जाने, इन लोगों को अपने नाते-रिश्तेदार या जान-पहचान के लोगों की मौत की खबरें अक्सर ही मिलती रहती हैं। मैं दीवार के सहारे टिककर खड़ी हो गई। उस वक्त मुझे अपने अंदर किसी रेस्तराँ में जाने या होटल लौटने की हड़बड़ी, विल्कुल नहीं रही। आन्तोनेला ने तो कहा था कि आज वह मेरा होटल वदल लेगी, लेकिन अव होटल वदलने से क्या फायदा? कल सुबह ही तो मैं रोम चली जाऊँगी। मैंने सबरीना से इस हादसे का कोई विवरण नहीं पूछा। मैंने यह भी नहीं पूछा कि माफिया लोगों ने उन्हें कैसे मारा? कव मारा: बच्चों की उम्र कितनी थी? अव आन्तोनेला के माँ-बाप क्या कर रहे हैं? स्टेफान का क्या कहना है? हत्यारों के पकड़े जाने का कोई लक्षण है या नहीं? मैंने कुछ भी नहीं पूछा! पूछने से फायदा भी क्या था? जो लोग चले गए, वे लोग तो हमेशा-हमेशा के लिए चले गए।
फ्रांसेस्को हाथ में पिस्तौल लिए आ पहुँची!
"चलो, चलो, रेस्तराँ चलना है।"
"मैं कहीं नहीं जाऊँगी! और, सुनो, यूँ पिस्तौल लिए-लिए मत घूमा करो तो! मुझे यह बिल्कुल पसंद नहीं है।"
मैंने बाकायदा डाँट दिया। इन लोगों का भी भला क्या भरोसा? कहने को तो ये लोग मेरी पहरेदारी कर रहे हैं, मगर ये लोग ही कहीं मेरा अपहरण न कर लें। कौन कहेगा कि पुलिस में भी माफिया के लोग शामिल हों?
समूची रात मैं कहीं नहीं लौटी। सड़क पर इधर-उधर घूमती-लेटी रही! सबरीना भी मेरी बगल में लेटी रही। अलस्सुबह होटल से, वही मेरा सूटकेस समेट लाई। मेरा किसी से भी बात करने का मन नहीं हो रहा था। हवाई अड्डे पर खड़े-खड़े, मुझे सवरीना से विदाई-वाक्य के तौर पर कहना चाहिए था-ठीक-ठाक रहना! खुश रहना!-मैं यह तक नहीं बोल पाई। उसके लिए, आन्तोनेला के लिए, सिसिली के सभी लोगों के लिए, मेरे मन में प्यार उमड़ता रहा।
यह रचना मैंने निखिल सरकार के आग्रह पर भी लिखी थी।
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