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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


हम दोनों के संवाद में ङ भी शामिल थे। लिखने के बारे में मेरी विनयशीलता और किसी अज्ञात वजह से उनके प्रति मेरा रूखा बर्ताव-मन-ही-मन वे इन दोनों का ओर-छोर मिला नहीं पा रहे थे। मैं जो भी बोल-बतिया रही थी, सीधे गैबी से ही मुखातिब थी।  जो कह रहे थे, वह भी गैबी के साथ। रात को खाने पर बैठने से पहले ही गैबी के पत्नी-पत्र आ पहुँचे। गैबी और उसकी मरगिल्ली बीवी, लेना ने दरवाजे पर ही एक-दूसरे को चम लिया। यह थथानियम चुंबन था। यह नियम देखकर मुझे ख़ासा मज़ा आता है। प्यार की यह अभिव्यक्ति सभ्य समाज में भले ही नियम बन चुकी हो, मगर असभ्य समाज में प्रेम-प्यार की यह अभिव्यक्ति गुनाह मानी जाती है। क़त्ल-खून करने, छुरा घोंप देने या पीट-पीटकर भुर्ता बना देने पर इतनी छिः छिः नहीं होती, जितना यूँ खुलेआम चुंबन लेने से!

आज रात का खाना चाहे जितना भी मामूली हो, गैवी ने पकाया था। इस देश में यह इतनी स्वाभाविक वात थी कि इस बारे में उन दोनों ने कोई जिक्र नहीं छेड़ा। लेना मेज़ के सामने आ बैठी। चार लोगों के बैठने के लिए, छोटी-सी वह मेज सजा दी गयी। पानी का गिलास ! दारू का गिलास ! काँटा-चम्मच-छुरी! नेपकिन! लेकिन जो असली चीज़ थी-खाद्य सामग्री, वही समस्या बन गयी। खाने का जो सामान था, उसे देखकर मुझे विल्कुल नहीं लगा कि मैं परम तृप्ति से खा पाऊँगी। पानी में उवला हुआ पास्ता और कच्ची मछली! गले से नीचे उतरना ही नहीं चाहता था, अगर खाना निगला न जा रहा हो, तो ज़ार-ज़बर्दस्ती आखिर कितनी देर, अंदर घुसेड़ा जा सकता था? मेरी भूख भी बनी रही और साथ-साथ मेरी विपन्नता भी जिंदा रही!

अगले दिन ङ चले गए।

बेहद खिन्न आवाज़ में उन्होंने पुलिस से पूछा, “यहाँ टैक्सी मिल जाएगी? मुझे हवाई अड्डे जाना है।"

किसी पुलिस वाले ने जवाब दिया, "टैक्सी क्यों? मैं आपको अपनी गाड़ी से छोड़ आऊँगा।"

यह सुनकर उनकी आवाज़ में गद्गद भाव छलक पड़ा। जाने से पहले उन्होंने मेरी तरफ देखा। उनकी उस निगाह में जाने क्या तो था!

उन्होंने लंवी उसाँस छोड़कर कहा, "ठीक-ठाक रहना!"

ङ ने एक वार भी मुझे हवाई अड्डे तक चलने को नहीं कहा। उन्हें शायद अंदाज़ा हो गया था कि मैं नहीं जाऊँगी।

नहीं, मेरे चेहरे पर कोई मनोभाव नहीं था। चेहरे पर महज एक पथरायी खामोशी थी! ऊ के चले जाने के बाद मेरे अंदर से भी एक गहरी उसाँस निकल पड़ी! क्यों? मैं नहीं जानती। यह लंबी उसाँस किसके लिए थी, किसके लिए मेरे मन में ममता उमड़ आयी? अपने लिए या ङ के लिए? ङ के लिए तो ममता नहीं होनी चाहिए थी। मैं तो चाहती ही थी कि ङ चले जाएँ। मेरे पास जिसे छिपकर आना पड़े, उसे मेरे साथ आने की कोई जरूरत नहीं थी! रहने की तो बिल्कुल भी नहीं थी! मैं क्या इतनी ही अछूत हूँ कि लोगों के सामने यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वे मुझसे स्नेह करते हैं या मेरा समर्थन करते हैं? कितना कुछ घट गया! उस वक्त व्यक्ति 'मैं' से, राजनैतिक घटनावली क्या बहुत ज़्यादा बड़ी नहीं थी?

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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