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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


स्वीडन में सर्दी पड़ने लगी है। जिस देश में देर रात तक उजाला फैला रहता था, उसी देश में अब शाम होने से पहले ही चारों तरफ अँधेरा छा जाता है।

मेरे खत अब नरस्टेड के पते पर ही आते हैं। नरस्टेड से मेरे लिडिंगो के पते पर भेज दिए जाते हैं। हालाँकि लिफाफे पर मेरा नाम नहीं होता, लेकिन खत मुझ तक आते रहते हैं। इस घर के फोन नंबर के साथ गैवी ने अपने घर का वह नया फोन नंबर भी जोड़ दिया है, जो वह मेरे काम-काज के लिए इस्तेमाल करता था। इस देश में टेलीफोन के कितनी ही तरह के आकर्षक नियम हैं। इस देश के टेलीफोन बुक में हर किसी का नाम, पता, टेलीफोन नंवर मौजूद है, लेकिन जो वंदा यह नहीं चाहता कि उसका नंवर, उस टेलीफोन बुक में हो, उसका नाम उसमें नहीं होता। टेलीफोन कार्यालय में फोन करते ही पाँच मिनट के अंदर फोन-लाइन मिल जाती है। मुझे अपने देश का ख़याल आता है। साल-दर-साल इंतजार करते रहने के बाद भी लाइन मिलने की कोई निश्चयता नहीं होती। यहाँ घर में बैठे-बैठे ही ढेरों काम फोन पर ही निवटा लिए जाते हैं, जिनकी हमारे देश में कल्पना भी नहीं की जा सकती। कुल अस्सी लाख आबादी वाला देश, फिर भी कितनी भारी-भरकम टेलीफोन-बुक! हर किसी के लिए मुद्रित और प्रकाशित होती है। पीले, गुलाबी, सफेद रंग के हर किस्म के पन्ने! एक-एक रंग, एक-एक वर्ग के लिए! कोई भी ज़रूरत हो, लोग फोनबुक खींच लेते हैं। मैंने ऐसा एक भी स्वीडिश नहीं देखा जिसे उस किताब में से कुछ असंभव-सा खोज निकालना नहीं आता। सुरक्षा-फौज की तरफ से हिदायत है कि अपनी जान-पहचान के दो-एक लोगों के अलावा मैं अपना फोन नंबर किसी को न दूँ। विदेशों से आमंत्रण, इंटरव्यू के लिए अनुरोध, पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखने की फरमाइश, किताबों के प्रकाशन की फरमाइश वगैरह संबंधी सभी खत और फैक्स अब मेरे घर पर ही आने लगे हैं। कई-कई खत और फैक्स मैं पढ़ती भी नहीं! अनगिनत फोन मैं उठाती भी नहीं। जब से मालिन टोवो, सेक्रेटरी के तौर पर आई है, हालाँकि इन सभी कामों की जिम्मेदारी मैंने उसे ही सौंप दी है, लेकिन उसे दस काम दिए जाते हैं। तो वह हफ्ते-भर तक एक ही काम लेकर पड़ी रहती है। वह सिर्फ किसी एक काम की गहराई में जाती है। वेवजह इधर-उधर फोन करती रहती है। इंग्लैंड से आमंत्रण आया है, ऑस्ट्रिया से भी, फोन और फैक्स उन लोगों को ही करना चाहिए, लेकिन नहीं, मालिन टोबो खुद ही फोन करके पूछताछ करती है कि क्या हआ, क्या होना है। वही पता करती है कि अब आगे क्या होना है। असल में सेक्रेटरी के तौर पर मालिन टोवो चुस्त नहीं है। उसने अपनी लिखाई-पढ़ाई अभी हाल में ही पूरी की है और अव वह कोई नौकरी करेगी। नौकरी शुरू करने से पहले यहाँ के नौजवान लड़के-लड़कियों को कहीं, कम पैसों में अस्थायी, कोई काम-काज करने की हिदायत दी गई है। तनखाह सरकार ही देगी। मालिन भी वैसी ही, इक्कीस वर्षीया लड़की है। जब मैं खुद चाय बनाकर मालिन को थमाती हूँ, वह कई-कई बार धन्यवाद देती है। मुझे इतने सारे धन्यवाद सुनने की आदत नहीं है। ये लोग जैसे धन्यवाद देती हैं, वैसे ही सुनना भी चाहती हैं। मुझे धन्यवाद देने की भी बिल्कुल आदत नहीं है। मैं मीठी-सी मुस्कान विखेरकर उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर देती हूँ, लेकिन मैंने देखा, इससे मेरी वदनामी ही होती है। मैं सचमुच दिल से धन्यवाद दूं या न दूँ मगर 'धन्यवाद' मझे कहना ही होगा।

एक दिन दोपहर को खाने के लिए बैठते हुए मैंने मालिन को भी खाने के लिए आवाज़ दी।

वह बेहद विस्मय से भर उठी।

"क्यों? यहाँ क्यों खाऊँ?"

“अरे भई, यह भी तो घर है। यहाँ मैंने खाना पकाया है, खाओगी क्यों नहीं? मैं क्या अकेली-अकेली खाऊँ और तुम उस कमरे में बैठी रहोगी?"

“हाँ, बैठी रहूँगी। यही तो नियम है।"

लेकिन जब मैंने उसे ज़िद करके बिठा लिया! "बैठो तो! खाओ तो सही।" कहते हुए, जब मैंने उसके लिए खाना परोस दिया। उसने खाना खाया। वह किस कदर कृतज्ञता से भर उठी। कोई किसी को इस तरह मान-मनुहार करके खिलाए। इस देश में शायद इसका रिवाज नहीं है। बेहद अंतरंग रिश्ता हो तभी ऐसा होता है। इसके बावजूद कई-कई तरह की औपचारिकताएँ पहले निमंत्रण दो! निमंत्रण भी साल में एक वार या कई सालों में एक बार दिया जाए। यह क्या इसी देश का रिवाज है? चूंकि ये लोग बर्फीले देश के बाशिंदे हैं, बर्फ की वजह से घर के बाहर आने-जाने में परेशानी होती है, इसलिए ये लोग घर में अकेले ही पड़े रहने के अभ्यस्त हैं या इस मशीनी और अति-आधनिक यग में घडी के काँटों की तरह ये लोग नाप-जोखकर जिंदगी बसर करते हैं। इसलिए वक्त की कमी है? दिन-भर के काम-काज के बाद तन-मन थका रहता है, उस वक्त मेहमान वगैरह का आना भला नहीं लगता? वे लोग वह वक्त आराम से लेटे-लेटे गुज़ार देना चाहते हैं, इसलिए वे अतिथि और आतिथेय, दोनों से यथासंभव दूर ही रहते हैं? वे लोग खुद भी किसी का आतिथ्य स्वीकार करना नहीं चाहते, क्योंकि तब दूसरों को भी मेहमान बनाने का दायित्व उनके सिर पर भी आ पड़ेगा।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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