सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
जैनब– क्या हुआ हंफ़ा? यह तेरी क्या हालत है?
हंफा– बीबी, खुदा का अज़ाब इन रूस्याहों पर नाजिल हो। जालिम ने मुझे रोक लिया, मेरी मशक छीन ली, और एक कुत्ते को मुझ पर छोड़ दिया। भागते-भागते किसी तरह यहां तक पहुंची हूं। हाय! इन मूजियों पर आसमान भी नहीं फट पड़ता। इतनी दुर्गति कभी न हुई थी।
(रोती है।)
हुसैन– (अंदर जाकर) हंफ़ा क्यों रोती है, अरे, यह तेरे कपड़े किसने फाड़े?
जैनब– बेचारी शामत की मारी पानी लेने गई थी। बच्चे प्यास से तड़प रहे थे। जालिमों ने नोमजान कर दिया।
हुसैन– हंफ़ा, मत रोओ। रसूल के कदमों की कसम, अभी उन जालिमों का सिर तेरे पैरों पर होगा, जिनके बेरहम हाथों ने तेरी बेहुरमती की, चाहे मेरे सारे रफ़ीक, मेरे सारे अजीज़ और मैं खुद क्यों न मर जाऊं। औरत की बेहुरमती का बदला खून है, चाहे वह गुलाम और बेक़स ही क्यों न हों। उन मलऊनों को दिखा दूंगा कि मुझे अपनी लौंडी की आबरू अपने हरम से कम प्यारी नहीं है।
[तलवार हाथ में लेकर बाहर जाते हैं, पर हंफा उनके पैरों को पकड़ लेती है।]
हंफा– मेरे आका़, मेरी जान आप पर फ़िदा हो। मैं अपना बदला दुनिया में नहीं, अक़बे में लेना चाहती हूं जहां की आग कहीं ज्यादा तेज, जहां की सजाएं यहां से कहीं ज्यादा दिल हिलाने वाली होंगी। मैं नहीं चाहती कि आपकी तलवार से कत्ल होकर वह अजाब से छूट जाय।
हुसैन– हंफा, यह सब उसके लिए है, जो दुनिया में अपना बदला न ले सके। अगर मेरे पास एक लाख आदमी होते, तो तेरी बेइज्जती का बदला लेने के लिए मैं उन्हें कुरबान कर देता, इन बहत्तर आदमियों की हकी़क़त ही क्या है। मेरे पैरों को छोड़ दे, ऐसा न हो कि मेरा गुस्सा आग बनकर मुझको जलाकर खाक कर दे।
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