सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
|
448 पाठक हैं |
मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
हंफा– (दिल में) काश इस वक्त वे जालिम यहां होते और देखते कि जिसे उन्होंने कुत्तों से नुचवाया था, उसकी अली के बेटे की निगाहों में कितनी इज्जत है। नहीं मेरे मौला, मैं दुश्मनों को इतनी अच्छी मौत नहीं देना चाहती। मैं उन्हें जहन्नूम की आग में जलाना चाहती…।
[अली अकबर का प्रवेश]
अली अक०– अब्बाजान, साद अपनी फ़ौज से निकलकर आया है, और आपसे मिलना चाहता है।
हुसैन– हां, मैंने इसी वक्त उसे बुलाया था। पहले उससे हंफ़ा को सताने वालों के खून का मुआविजा लेना है।
[हुसैन और अली अकबर बाहर जाते हैं।]
अली अक०– या हजरत, मैं भी आपके साथ रहूंगा।
अब्बास– मैं भी।
हुसैन– नहीं, मैंने उनसे तनहा मिलने का वादा किया है। तुम्हारे साथ रहने से मेरी बात में फर्क आएगा।
अली अक०– वह तो अपने एक साथ एक सौ जवानों से ज्यादा लाया है, जो चंद कदमों के फासले पर खड़े हैं। हम आपको तनहा न जाने देंगे।
अब्बास– साद की शराफ़त पर मुझे भरोसा नहीं है।
हुसैन– मैं उसे इतना कमीना नहीं समझता कि मेरे साथ दग़ा करे। खैर, अगर उसे कोई एतराज न होगा, तो वहां मौजूद रहना। उसे भी अपने साथ दो आदमियों को रखने की आजादी होगी।
[तीनों आदमी अस्त्र से सुसज्जित होकर चलते हैं। परदा बदलता है। दोनों फौजों के बीच में हुसैन और साद खड़े हैं। हुसैन के साथ अकबर और अब्बास हैं, साद के साथ उसका बेटा और गुलाम]
साद– अस्सलामअलेक। या फ़र्जदे रसूल, आपने मुझे अपनी खिदमत में हाज़िर होने का मौका दिया, इसके लिए आपका मशक़र हूं। मुझे क्या इर्शाद है?
|