सदाबहार >> कर्बला कर्बलाप्रेमचंद
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मुस्लिम इतिहास पर आधारित मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखा गया यह नाटक ‘कर्बला’ साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है।
चौथा दृश्य
[हुसैन के हरम की औरतें बैठी हुई बातें कर रही हैं। शाम का वक्त।]
सुगरा– अम्मा, बडी प्यास लगी है।
अली असगर– पानी, बूआ पानी।
हंफ़ा– कुर्बान गई, बेटे कितना पानी पियोगे? अभी लाई (मश्को को जाकर देखती है, और छाती पीटती लौटती है) ऐ कुरबान गई बीबी, कहीं एक बूंद पानी नहीं। बच्चों को क्या पिलाऊं?
जैनब– क्या बिलकुल पानी गायब हो गया?
हंफ़ा– ऐ कुरबान गई बीबी, सारे मटके और मशकें खाली पड़ी हुई हैं।
जैनब– गजब हो गया। नदी तो बंद ही थी, अब जालिम कुएं भी नहीं खोदने देते।
असगर– पानी, बूआ पानी!
शहरबानू– या खुदा! किस आवाज में फंसे। इन नन्हों को कैसे समझाऊं!
हंफ़ा– बीबी, कुरबान जाऊं। मैं जाकर दरिया से पानी लाती हूं। कौन मुआ रोकेगा, मुंह झुलस दूं उसका। क्या मेरे लाल प्यासों तड़पेंगे, जब दरिया में पानी भरा हुआ है?
जैनब– तू नहीं जानती, साढे छः हजार जवान दरिया का पानी रोकने के लिए तैनात हैं?
हंफ़ा– ऐ कुरबान जाऊं बीवी, कौन मुझसे बोलेगा, झाड़ न मारूंगी। रसूल के बेटे प्यासे रहेंगे?
[हंफ़ा एक मशक लेकर दरिया की तरफ़ जाती है और थोड़ी देर बाद लौट आती है, सिर के बाल नुचे हुए, कपड़े फटे हुए, मशक नदारद। रोती हुई जमीन पर बैठ जाती है।]
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