कहानी संग्रह >> आजाद हिन्द फौज की कहानी आजाद हिन्द फौज की कहानीएस. ए. अय्यर
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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....
भारतीय एवं जर्मनी के राजनीतिक नेताओं के बीच उच्चस्तरीय वार्तालाप बर्लिन
में नेताजी के पहुंचने के कुछ दिन बाद ही शुरू हो गई थी। उन्होंने विदेश
मंत्री वोन रिबन ट्रोप से वार्तालाप आरंभ की परंतु अगले वर्ष 1942 की 28 मई
तक चांसलर हिटलर से नहीं मिल सके थे। इन उच्चस्तरीय मुलाकातों के फलस्वरूप
नेताजी को व्यावहारिक एवं आर्थिक मामलों में पूर्ण स्वतंत्रता दे दी गई थी।
जर्मन विदेश मंत्री ने सुभाष की इस हठ भरी मांग को भी मान लिया कि कोई जर्मन
अधिकारी उनके कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगा एवं समस्त आर्थिक सहायता
स्वतंत्र भारत के नाम ऋण के रूप में दी जायेगी जिसकी वापसी युद्ध समाप्त होने
के पश्चात् होगी। विदेश मंत्रालय का कार्यालय एवं उच्चतम सैनिक अधिकारी
उन्हें तकनीकी सहायता तथा आवश्यक कार्यकर्ता देगा। नेताजी को विदेश मंत्री के
युद्ध संबंधी व्यय के लिए विशेष फंड में से धन मिलता था। उनकी योजना का
विस्तार होने पर एवं अनुयायियों की संख्या में वृद्धि होने की दशा में अधिक
आर्थिक सहायता का वचन भी उन्हें मिला। बाद में जर्मनों ने अपने वचन का पालन
बिना लिखत-पढ़त के करना आरंभ कर दिया। दो वर्ष बाद नेताजी ने स्वतंत्र भारत
के नाम पर ऋण की सांकेतिक अदायगी भी की और जर्मन राजूदत को टोकियो में
5,00,000 येन उस फंड से, जो पूर्व एशिया में नेताजी के युद्ध फंड के लिए
भारतीयों ने स्वेच्छा से चंदा एकत्र करके किया था, दिये। जर्मनी में नेताजी
के कार्यों के लिए सिद्धांत रूप में पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी।
जर्मनी में राज्य सचिव विल्हम कैप्लर सामान्यत: जर्मन विदेश मंत्री, चांसलर
एवं सरकारी संगठनों के बीच संपर्क अधिकारी का काम करते थे। नेताजी, उनके
भारतीय सहयोगी एवं विशेष भारतीय विभाग के जर्मन स्टाफ के संबंध विल्हम कैप्लर
के साथ पूर्णरूपेण अच्छे थे। व्यवस्था की दृष्टि से समस्त कार्यक्रम सुगमता
से चल रहा था। अब भारतीय सहकार्यकर्ताओं की संख्या 35 हो गई थी। 2 नवंबर 1941
को स्वतंत्र भारत केंद्र का अधिकृत रूप से उद्घाटन हुआ। बंबई में भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस के भूतपूर्व सदस्य एन.जी.गैनपुले भी स्वतंत्र भारत केंद्र
में सक्रिय कार्यकर्ता और नमबियार के सहायक के रूप में सम्मिलित हुए। आगामी
वर्ष में नेताजी ने नमबियार को अपना उत्तराधिकारी एवं उपनेता नियुक्त किया।
स्वतंत्र भारत केंद्र ने अपना ध्यान समाचार प्रसारण पर केंद्रित किया और
आज़ाद हिंद रेडियो ने प्रसारण कार्य अक्तूबर 1941 में प्रारंभ किया। भारतवर्ष
के विभिन्न भागों के हिंद, मुसलमान ईसाई और पारसी जाति के लगभग बीस व्यक्ति
प्रसारण सेवा कार्य करते थे और अंग्रेजी, हिंदुस्तानी, बंगला, फारसी, तमिल,
तेलुगु और पश्तो सात भाषाओं में प्रसारण होता था।
सर्व प्रथम नेताजी ने बर्लिन में जर्मन सैनिक अधिकारियों से जर्मन विदेश
कार्यालय की विशेष भारतीय शाखा के माध्यम से संपर्क स्थापित किया और फिर सीधे
उनसे मिले। इन संपर्कों के दौरान उनकी मुलाकात डा. सैफरिज से हुई जो उनके
गहरे मित्र बन गए। डा. सैफरिज सुभाष की इच्छानुसार भारतीय सैन्य दल की देखभाल
करते थे और युद्ध उपरांत उन्होंने जर्मन-भारत समाज स्थापित करने में तथा उसके
कार्यों का विस्तार करने में मुख्य भूमिका निभाई। आजकल यह संस्था बर्लिन में
भारतीय सूचना संस्थान, जिसकी नींव भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1929 में
जवाहरलाल के सुझाव पर डाली थी, का कार्य कर रही है।
नेताजी ने भावी आज़ाद हिंद फौज के निर्माण की नींव जर्मनी में लगभग उसी समय
डाली थी जिस समय जनरल मोहनसिंह ने पूर्वी एशिया में यह कार्य आरंभ किया था।
परंतु यह भारतीय सैन्य दल यूरोप से भारत की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर आई.एन.ए.
के आक्रमण के साथ-साथ बर्मा-भारत सीमा पार करके अंग्रेजी सेना पर आक्रमण करने
के लिए फरवरी 1944 में नहीं लाया जा सका। फिर भी स्वतंत्र भारत केंद्र का यह
लड़ाकू विभाग, जिसकी स्थापना भारतीय सैन्य दल के रूप में हुई थी, पूर्वी
एशिया में आई.एन.ए. के विस्तार की दिशा में अग्रगामी कदम था जो आजाद हिंद की
अस्थाई सरकार का लड़ाकू हाथ थी। इस प्रकार स्वतंत्र भारत केंद्र और भारतीय
सैन्य दल की स्थापना से नेताजी को युद्धकालीन क्रांतिकारी सरकार चलाने का
क्रियात्मक अनुभव प्राप्त हुआ एवं उस समुचित ढंग से बनी सरकार के नेतृत्व में
युद्ध करने के लिए मुक्ति सेना को संजोने का अनुभव भी उन्हें मिला। यह नेताजी
की दूरदर्शिता ही थी जिसने बचाव पक्ष के वकील के रूप में कार्यरत भोलाभाई
देसाई को 1945 में लाल किले में आई.एन.ए. के अभियोग में अंतर्राष्ट्रीय कानून
के अंतर्गत अभियुक्तों को मुक्त कराने में सक्षम बनाया।
प्रारंभ में जर्मनी में भारतीय स्वयं सेवकों द्वारा केवल भारतीय छापामार
सैनिकों का दल बनाया गया था जिसमें एक सौ से भी कम भारतीय स्वयं सेवक रहे
होंगे। इन छापामार सैनिकों का प्रशिक्षण दो भारतीय नागरिकों की सहायता से
कप्तान हरविच ने किया था। ये भारतीय आबिद हसन और एन.जी. स्वामी थे जिन दोनों
ने बाद में पूर्वी एशिया में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। रूस में स्टैलिनग्रेड
के एवं अफ्रीका में एल ऐमीन युद्ध में मोर्चों पर जर्मन सेनाओं की पराजय के
कारण भारत की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं पर इन भारतीय छापामारों के युद्ध में
सम्मिलित होने की संभावना समाप्त हो गई। मूल योजना यह थी कि छापामारों को
हवाई जहाज द्वारा उपर्युक्त समय पर भारत की उत्तरी सीमा पर उतारा जाए और वहां
से चार बटालियनों से निर्मित भारतीय सैन्य दलों के बड़े संगठन को धीरे-धीरे
वाहनों द्वारा भेजा जाए परंतु ऐसा नहीं होना था।
सितंबर 1941 में जर्मनी और उत्तरी अफ्रीका में भारतीय सेना के युद्ध बंदियों
में से भारतीय सैन्य दल के लिए भर्ती का कार्य आरंभ हुआ। नेताजी ने एनावर्ग
का शिविर प्रथम बार दिसंबर में देखा। उन्होनें अपनी बातचीत एवं भाषणों में
स्वतंत्र भारत के प्रति निष्ठा की स्पष्ट मांग रखी। अधिकारी एवं सैनिक नेताजी
से अत्यधिक प्रभावित हुए।
पहला आधिकारिक गोपनीय युद्ध अभ्यास भारतीय सैन्य दल की तीन बटालियनों द्वारा
किया गया और इसे नेताजी और उनके मित्र कर्नल यामा मोतो, जो जर्मनी
में जापान के राजदूत के सैनिक सहायक थे, ने देखा। बाद में यामा मोतो पूर्वी
एशिया में जापानी संगठन के प्रमुख बने और टोकियो की सरकार एवं आई.एन.ए. के
बीच समन्वय स्थापित करने का कार्य करने लगे। ले.कर्नल किर्पे के अधिकार में
कार्यरत भारतीय सैनिकों ने राष्ट्रीय ध्वज के प्रति भक्ति की शपथ ली। यह
राष्ट्रीय झंडा कांग्रेस का तिरंगा झंडा ही था केवल इतना अंतर था कि इसके बीच
में चर्खे के स्थान पर उछलता हुआ सिंह अंकित था। उछलता हुआ सिंह भारत के
स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक था। सैनिक और नागरिकों के बीच 'जयहिंद' अधिकृत
अभिवादन माना गया था एवं रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित 'जन गन मन' राष्ट्रीय
गान था।
नेताजी ने जर्मनी में स्वतंत्र भारत केंद्र एवं भारतीय सैन्य दल का निर्माण
करके अपना प्राथमिक लक्ष्य प्राप्त किया। परंतु अभी उन्होंने जर्मनी, इटली और
जापान द्वारा भारत के प्रति उनकी नीति एवं युद्धोपरांत भारत को स्वतंत्रता
देने की वचनबद्धता के बारे में इन देशों की संयुक्त घोषणा प्राप्त नहीं की
थी। मुसोलोनी ने इस वचनबद्धता के बारे में अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी एवं
जापान के प्रधानमंत्री तोजो ने भी तत्परता से ऐसा ही किया परंतु हिटलर ने यह
बहाना करके अपनी स्वीकृति रोक ली कि इस प्रकार की घोषणा का उस समय तक बहुत कम
व्यावहारिक महत्व होगा जब तक घटनाचक्र द्वारा ऐसा निर्णय समर्थित न हो और ऐसी
स्थिति में ही घोषणा को बल मिल सकेगा। हिटलर के साथ अपनी भेंट में नेताजी ने
न केवल ऐसी वचनबद्धता की ही मांग की थी बल्कि उन्होंने जर्मनी के अंदर अपने
राजनैतिक कार्यों में स्वतंत्रता का वचन भी चाहा था। जब हिटलर ने उनसे उनकी
राजनीतिक परिकल्पना के स्वरूप के बारे में पूछा तो नेताजी ने वोन ट्राट से,
जो दुभाषिये का कार्य कर रहे थे, अधीर होकर कहा कि महामहिम से कहो, "मैं जीवन
भर राजनीति में ही रहा हूं और मुझे इस संबंध में किसी के परामर्श की जरूरत
नहीं है।" हिटलर न तो अंग्रेजी बोल सकता था और न ही वह अंग्रेजी समझता था।
वोन ट्राट ने सुभाष के कथन का कूटनीति की भाषा में ही अनुवाद किया। यह भेंट
असफल रही। अब नेताजी जर्मनी में एक अंधे गलियारे में थे और वहां उन्हें अपने
कार्य में प्रगति करने का अवसर न था। उन्हें विश्वास हो गया कि अब उनका
कार्यक्षेत्र यूरोप में नहीं एशिया में होगा। फरवरी 1942 में जब अंग्रेजों ने
सिंगापुर में जापानियों के सामने हथियार डाले उसी दिन से नेताजी ने एशिया
जाने की योजना बनाना आरंभ की। उन्होंने पूर्व एशिया में तीस लाख भारतवासियों
को एक सूत्र में बांधकर संगठित करने एवं उन्हें भारत की पूर्वी सीमा से युद्ध
के लिए तैयार करने की पूर्व योजना बनायी।
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