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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....


6. विदेशी सहायता की खोज

युद्धकालीन बर्लिन में आगमन के पश्चात् कुछ समय के लिए सुभाष 'ओरलैंडो मजोटा' नाम से जाने जाते रहे। यह इटेलियन नाम अफगानिस्तान से रूस होते हुए जर्मनी जाने के लिए पासपोर्ट पर अंकित था। जर्मन विदेश मंत्रालय में विशेष भारतीय विभाग के कुछ सच्चे और सहानुभूति रखने वाले जर्मनी निवासियों की सक्रिय सहायता से वे शीघ्र ही अपनी महत्वपूर्ण योजनाओं के कार्यान्वयन में लग गए। यह छोटा समर्पित एवं सहयोगी जर्मन ग्रुप नाज़ी प्रेरित नहीं था। इस ग्रुप का नेता रोडेशिया का एडमिरल वोनटीट सुल्ज नामक विद्वान था, जिसे तीन वर्ष पश्चात् हिटलर को मारने के षड़यंत्र में सम्मिलित होने के कारण फांसी दे दी गई थी। उसके सहायक डा. अलक्जेंडर वर्थ थे जो अब भी पश्चिमी जर्मनी और स्वतंत्र भारत के बीच मैत्री को प्रोन्नत करने में सक्रिय कार्य कर रहे थे। 23 जनवरी 1970 को नेताजी के 73 वें जन्म दिवस के उपलक्ष में कलकत्ता में आयोजित उत्सव में उन्होंने विशेष भाषण दिया था। हिटलर सरकार में इस छोटे से ग्रुप ने यह निश्चय कर लिया था कि सुभाष को अपने महत्वपूर्ण उद्देश्य की साधना में अधिकतम सुविधा मिले और सरकार के बाहर नाजी पार्टी अथवा सरकारी अधिकारियों की अफ़सरशाही द्वारा उनके कार्य में कोई हस्तक्षेप न हो। सुभाष ने बर्लिन में स्वतंत्र भारत केंद्र की स्थापना की। इसके सदस्य बीस भारतीय थे जिनमें भूतपूर्व राजदूत ए.सी.एन. नमबियार, डा. गिरजा मुखर्जी, डा.एम.आर. व्यास भी सम्मिलित थे। डा. व्यास आज़ाद हिंद रेडियो, आज़ाद मुस्लिम रेडियो, राष्ट्रीय कांग्रेस रेडियो से दैनिक प्रसारण की देखभाल करते थे। बाद में सुभाष ने यूरोप में उपस्थित और कुछ उत्तरी अफ्रीका से लाये गये युद्धबंदियों, जिन्हें अंग्रेज वहां अपने साम्राज्यवादी युद्ध में जर्मनी और इटली के विरुद्ध लड़ने के लिए ले गये थे, से एक सैन्य दल का निर्माण किया। स्वतंत्र भारतीय केंद्र आज़ाद भारत की अस्थाई सरकार का अग्रगामी रूप था जिसकी घोषणा सुभाष ने दो वर्ष बाद सिंगापुर में की थी और भारतीय सैन्य दल आई.एन.ए. का पूर्वगामी रूप था जिसका नेतृत्व सुभाष ने भारत-बर्मा सीमा पर किया।

वोन ट्रोट की देखरेख में कार्य करने वाली टीम को जर्मनी के विदेशी विभाग की राजनैतिक शाखा का सहयोग प्राप्त था। विशेषकर उस विभाग का जो डा. मेलचर के अधीन कार्य करता था। डा. मेलचर बाद में स्वतंत्र भारत में जर्मनी के राजदूत नियुक्त हुए। बर्लिन में सुभाष द्वारा स्थापित स्वतंत्र भारत केंद्र एक अर्द्ध-राजनैतिक स्तर की संस्था थी जिसका संबंध जर्मनी के अन्य तटस्थ देशों की तरह केवल विदेश विभाग से था। सुभाष नाज़ी पार्टी से सीधे संपर्क करने में समर्थ थे।

प्रारंभ से ही सुभाष और जर्मन मंत्रालय के विदेशी विभाग को यह स्पष्ट था कि जर्मनी के साथ भारत का सहयोग जर्मनी एवं अंग्रेजों के बीच युद्ध तक ही सीमित है।भारत जर्मनी के अन्य देशों के साथ झगड़ों अथवा आंतरिक विवादों से कोई संबंध नहीं रखना चाहता है। सुभाष अथवा आजाद हिंद रेडियो ने कभी भी यूरोप में अथवा बाहर नाज़ी नीति का समर्थन नहीं किया। जर्मनी के अंदर भारतीय क्रिया-कलाप इस स्पष्ट विचार के आधार पर किए जा रहे थे कि भारतीय अपने देश की स्वतंत्रता का कार्य आगे बढ़ायेंगे। वे अपना संबंध नाजी पार्टी की विचार-धारा से नहीं रखेंगे। यद्यपि सुभाष यूरोप में रोम को अपने कार्यों का केंद्र बनाने के लिए अच्छा समझते थे परंतु सुलझे हुए राजनीतिज्ञ होने के कारण उन्होंने बर्लिन को ही कार्यक्षेत्र बनाया क्योंकि इस संबंध में जर्मनी और इटली में समझौता हुआ था जिसे सुभाष अथवा भारत के साथ सहानुभूति रखने वाले उनके जर्मन सहयोगी परिवर्तित नहीं कर सकते थे। वे बर्लिन की अपेक्षा मास्को को भी अच्छा समझते यदि काबुल से आते समय मास्को में रुकने पर रूस ने ऐसा कुछ संकेत दिया होता। सुभाष जैसे व्यावहारिक व्यक्ति के लिए जो भारत के प्रत्येक मित्र से सहायता लेना चाहता था कोई अवसरवादिता की बात नहीं थी परंतु यूरोप के तत्कालीन राजनैतिक स्वरूप ने सुभाष को जर्मनी को ही अपना कार्य क्षेत्र बनाने के लिए करीब-करीब बाध्य कर दिया था।

यही पृष्ठभूमि थी जिसके अंतर्गत सुभाष ने यूरोप में स्वतंत्र भारत केंद्र, भारतीय सैन्य दल, यूरोप में राष्ट्रीय विचारों के भारतीयों का संगठन, गुप्त भारतीय रेडियो केंद्र को संगठित किया एवं अंत में एशिया के लिए पनडुब्बी की रहस्यमय यात्रा की। उसी दिन से जब सुभाष ने भारतीय सैन्य दल (आजाद हिंद फौज) का निर्माण किया, सैन्य दल के सदस्य उन्हें नेताजी कहकर संबोधित करने लगे।

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