कहानी संग्रह >> आजाद हिन्द फौज की कहानी आजाद हिन्द फौज की कहानीएस. ए. अय्यर
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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....
7. निष्कासित क्रांतिकारी
जब सुभाष पश्चिम में मंजिल की प्रतीक्षा कर रहे थे उसी समय रासबिहारी बोस
पूर्व में स्वतंत्रता के उषाकाल की प्रतीक्षा में थे। वे पतले-दुबले
निष्कासित वृद्ध क्रान्तिकारी अपने प्रहार के लिए महान घड़ी की प्रतीक्षा में
थे। वह घड़ी आयी जब 8 दिसंबर 1941 को जापान ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की
घोषणा की। एक ही रात में भारत के अंग्रेज शासक जापान के शत्रु हो गये। इस
प्रकार यकायक रासबिहारी बोस को उनके ऊपर लगे सब प्रतिबंध हटाकर मुक्त कर दिया
गया और अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए काम करने को उनका पथ-प्रशस्त हो
गया। रासबिहारी इस स्वर्ण अवसर की तीस वर्ष के लंबे समय से, जबकि वे वेश
बदलकर भारत से जापान आये थे, शांतिपूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। दिल्ली में
1911 में लार्ड हार्डिग पर बम फेंकने के अपराध में भारत में उनका सिर लाने
हेतु पुरस्कार की घोषणा की गयी थी। इस समय ब्रिटेन और जापान गहरे मित्र थे और
जापान में ब्रिटिश दूतावास के कर्मचारी इसी समय से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि
रासबिहारी टोकियो आकर भूमिगत हो गये हैं उनकी खोज में निरंतर लगे थे। वाइसराय
को मारने के प्रयास के कारण उनको भारत लाकर उन पर अभियोग चलाने की योजना थी।
इस स्थिति से बचने के लिए उन्हें अधिकारियों से आंख बचाकर अज्ञात एवं गुप्त
रहने के लिए बार-बार स्थान परिवर्तन करना पड़ता था। इस कार्य में उन्हें
अकथनीय कष्ट उठाना पड़ता था। अंत में कष्टों से छुटकारा पाने की दृष्टि से
उन्होंने जापान की नागरिकता स्वीकार कर ली और खुले आम जीवन व्यतीत करने लगे।
इसी बीच उन्होंने अपने शुभचिंतक जापानी की कन्या से विवाह कर लिया। उनके एक
पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्र द्वितीय विश्व युद्ध में मारा गया। उनकी धेवती
अभी भारत-यात्रा पर आयी थी और उसने अपनी आंखों से भारत की उस स्वतंत्रता को
देखा जिसका स्वप्न उसके नाना जीवन-पर्यंत संजोते रहे और जिसकी प्राप्ति लिए
वे अंतिम सांस तक प्रयत्न करते रहे। भारत की स्वतंत्रता के केवल बीस मास
पूर्व जापान में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी अंतिम और एकमात्र इच्छा भारत को
स्वतंत्र देखने की एवं स्वतंत्र भारत की मिट्टी में अपनी विश्रांत अस्थियों
को समर्पित करने की थी। भारत स्वतंत्र है और उनकी अस्थियां अभी जापान में
उनके जीवन के स्वप्न स्वतंत्र भारत की तीर्थ यात्रा के लिए प्रतीक्षा कर रही हैं, जिसके लिए वे जिये, संघर्ष करते रहे और अंत में जिसके लिए उन्होंने अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया।
रासबिहारी ही एकमात्र क्रांतिकारी नहीं थे जिन्होंने पूर्वी एशिया को कार्य-क्षेत्र बनाकर भारत की स्वतंत्रता के लिए सक्रिय प्रयत्न किया। इस शताब्दी के प्रारंभ में अन्य व्यक्ति भी जापान, चीन, थाइलैंड, मलाया इस उद्देश्य से गये कि वे वहां पर निवास करने वाले भारतीयों के बीच अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी कार्य करें। उन्हें वह विश्वास हो गया था कि भारत के अंदर रहकर सशस्त्र क्रांति करना संभव नहीं है। उन्होंने विश्व-शक्तियों के मध्य प्रतिस्पर्धा का लाभ उठाने की योजना बनायी और भारत से अंग्रेजी जूये को उतार फेंकने के लिए विदेशी सहायता लेने का प्रयास किया। इन क्रांतिकारियों में रासबिहारी बोस के अतिरिक्त थाईलैंड वासी पुराने अनुभवी बाबा अमरसिंह और शंघाई में बाबा उसमान खां विशेष उल्लेखनीय थे।
बाबा अमर सिंह प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पकड़े गये थे और उन्हें 22 वर्ष के कठोर करावास का दंड दिया गया था। बर्मा, जो उस समय भारत का अंग था, की जेल से मुक्त होकर वे थाईलैंड चले गये थे और क्रांतिकारी कार्य आरंभ किया था। क्योंकि अब वे वृद्ध हो गये थे अत: उन्होंने अपने क्रांतिकारी कार्यों को जारी रखने के लिए एक सिक्ख युवक ज्ञानी प्रीतमसिंह को, जो बैंकाक में धर्म-प्रचार कार्य करते थे, प्रशिक्षित किया। दिसंबर 1941 में पूर्वी एशिया में युद्ध आरंभ होने से पूर्व ज्ञानी प्रीतम सिंह बाबा अमरसिंह के निर्देशन में भूमिगत रहकर कार्य करते रहे। वे मलाया और बर्मा में अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों को पत्र लिखते थे और ये पत्र गुप्त रुप से भारतीय सैनिकों में प्रचारित किये जाते थे।
बाबा उसमान खां ने शंघाई में एक क्रांतिकारी पार्टी का गठन किया। उन्होंने एक समाचारपत्र निकाला जो चीन, जापान, जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया और मलाया, बर्मा और भारत के प्रमुख नगरों में भेजा जाता था। पूर्वी एशिया युद्ध में जब शंघाई जापानियों के हाथ आ गया तब बाबा उसमान खां ने जापानी नौ सेना की सहायता से कुछ अपने आदमी थाईलैंड होते हुए भारत और कुछ दूसरे युवक मलाया को अंग्रेजों के विरुद्ध अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों में प्रचार के लिए भेजे।
इसी समय थाईलैंड विशेषकर स्वामी सत्यानंदपुरी द्वारा स्थापित थाई-भारत सांस्कृतिक निवासालय के माध्यम से क्रांतिकारी कार्यों का केंद्र बन गया। स्वामी सत्यानंद एक भारतीय विद्वान, दार्शनिक और रवींद्रनाथ टैगोर के शिष्य थे। उनका भारत में कुछ प्रमुख क्रांतिकारियों से घनिष्ठ संपर्क था। जब जापानियों ने 8 दिसंबर, 1941 को ब्रिटेन और अमेरिका के विरुद्ध युद्ध घोषित किया और उसी दिन वे थाईलैंड में
उतर गये। तब 24 घंटे के अंदर ही बाबा अमरसिंह के नेतृत्व में बैंकाक में भारतीय स्वतंत्रता लीग बनायी गयी। स्वामी सत्यानंद पुरी ने थाई-भारत सांस्कृतिक निवासालय को तुरंत भारतीय राष्ट्रीय परिषद में परिवर्तित कर दिया और स्वतंत्रता लीग को सहयोग दिया।
उसी समय से पूर्व में जापान से लेकर पश्चिम में बर्मा तक देशभक्त भारतीयों ने देश की स्वतंत्रता के लिए यथा संभव प्रयत्न आरंभ किये। पूर्वी एशिया में तीस-लाख भारतीयों ने भारतीय स्वतंत्रता लीग की शाखाएं स्थापित की। इन सब भागों में पूर्व दशकों में भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा अपने कार्यों के लिए भूमि तैयार कर ली गयी थी। 8 दिसंबर 1941 को क्रांतिकारी कार्यों को गुप्त रूप से करना समाप्त हो गया। उन पर लगे समस्त प्रतिबंध और अवरोध एकदम हटा लिये गये और अब पूर्वी एशिया में भारत-भक्ति की एक खुली बाढ़-सी आ गयी।
सात/आठ दिसंबर की रात में जापान की सेना मलाया-थाईलैंड की सीमा पर उतरी और प्रात:काल ही वह मलाया में कोटा बररु की ओर बढ़ती हुई दिखाई दी। अंग्रेजों की पैदल सेना जापानी सेना को नहीं रोक सकी क्योंकि जापानी सेना जंगलों में युद्ध करने में प्रवीण थी और सदैव अंग्रेजी फ़ौज को धोखे में डाल देती थी। 41वीं पंजाब रेजिमेंट की प्रथम बटालियन ने जो उत्तरी मलाया में जित्रा स्थान पर नियुक्त थी तीन दिन तक वीरता से युद्ध किया परंतु अंत में आगे बढ़ती हुई जापानी फ़ौज के सामने उसे झुकना पड़ा।
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