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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....


5. राष्ट्रीय नेता

जनवरी 1938 में सुभाष देश से बाहर ही थे कि उन्हें अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित कर लिया गया जो राष्ट्र की ओर से किसी भारतीय को दिया जाने वाला उच्चतम पद था। सुभाष की आयु अब 41 वर्ष थी और वह अब तक के अध्यक्षों में सबसे अल्पायु के थे

सुभाष चंद्र बोस की कांग्रेस की अध्यक्षता का यह वर्ष इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इसी वर्ष राष्ट्रीय योजना समिति का निर्माण हुआ था। जवाहरलाल नेहरू इस समिति के अध्यक्ष नियुक्त हुए। कांग्रेस का नेतृत्व ग्रहण करने पर भारत के इतिहास और सुभाष के जीवन ने एक नवीन मोड़ लिया। इस विचार से कि योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए केवल एक वर्ष पर्याप्त नहीं हैं सुभाष ने 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने का निश्चय किया। गांधीजी ने सुभाष की इस इच्छा को उचित न मानकर डा. सीतारमैया पर अपने आशीर्वाद का हाथ रखा। इस तीखे चुनाव में सुभाष की विजय हुई और गांधीजी ने डा. सीतारमैया की हार को अपनी हार माना। इससे सुभाष को दुख हुआ। मध्य प्रदेश के त्रिपुरी अधिवेशन में अपनी अस्वस्थता के कारण सुभाष भाग न ले सके। अंग्रेजी सरकार से छह मास की अवधि में भारत को स्वतंत्रता देने का उनका अंतिम प्रस्ताव गांधीवादियों ने अस्वीकृत कर दिया। अब कांग्रेस में वाममार्गियों और गांधीवादियों में बीच की खाई प्रकट रूप से सामने आई। गांधीजी के अनुयायियों ने इस बृहद अधिवेशन में प्रस्ताव पारित किया कि सुभाष गांधीजी के परामर्श से कांग्रेस हाई कमांड की उच्च कार्यकारिणी के सदस्यों का निर्वाचन करें। सुभाष अपनी 'कैबिनेट' के साथी चुनने में गांधीजी को परामर्श देने के लिए सहमत न कर सके। दोनों में कोई समझौता नहीं हो सका। जब अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समिति की बैठक कलकत्ता में हुई तो सुभाष ने अध्यक्ष पद से त्याग-पत्र दे दिया और कांग्रेस में ही फॉर्वर्ड ब्लॉक की स्थापना की। इस नये ग्रुप को वाममार्गी कांग्रेसियों से उत्साहवर्धक एवं बहुत सहयोग मिला। कांग्रेस के दक्षिण पंथियों और फॉर्वर्ड ब्लॉक में विवाद इस हद तक बढ़ा कि कांग्रेस हाई कमांड ने संस्था में द्वितीय बार अध्यक्ष पद पर निर्वाचित सुभाष पर तीन वर्ष तक संस्था में कोई पद न ग्रहण करने की रोक लगा दी। यह उनको दंडित करने की दृष्टि से
किया गया था क्योंकि उन्होंने कांग्रेसजनों को अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की महासमिति के दो प्रस्तावों का विरोध करने का परामर्श दिया था। इन प्रस्तावों में से एक था प्रांतीय कांग्रेस समितियों एवं मंत्रियों मे बीच संबंध परिभाषित करना तथा दूसरा प्रस्ताव सविनय अवज्ञा (पैसिव रेजिस्टेंस) आरंभ करने से पूर्व समितियों से आज्ञा प्राप्त करना।

ठीक जिस प्रकार सुभाष ने त्रिपुरी में भविष्यवाणी की थी, सितंबर 1939 में यूरोप में युद्ध आरंभ हो गया। फॉर्वर्ड ब्लॉक ने अंग्रेज विरोधी कार्य तीव्र गति से आरंभ कर दिया जिससे भारत में अंग्रेजों की युद्ध की तैयारी को पर्याप्त धक्का लगा। अधिकारियों ने उन्हें सन् 1940 में कारावास में डाल दिया। सुभाष को अब यह पूर्ण विश्वास हो गया था कि भारतवर्ष को इस विश्व युद्ध से पूर्ण लाभ उठाना चाहिए और अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने में अंग्रेजों के शत्रुओं से सहयोग लेना चाहिए। उन्होंने सोच समझकर अपने जीवन के साथ एक जुआ खेला। नवंबर 1940 में अपनी मुक्ति के प्रश्न को लेकर उन्होंने कारावास में भूख हड़ताल की। अंग्रेज यह नहीं चाहते थे कि सुभाष की मृत्यु उनके हाथों में हो इसलिये उन्हें कारावास से मुक्त कर दिया गया परंतु उनकी गतिविधियों पर पूर्ण निगरानी रखी गई।

सुभाष ने भारत से बाहर जाकर युद्ध में अंग्रेजो के विरुद्ध शक्तियों से सहायता लेने एवं एक सेना संगठित करके भारत में विदेशी शक्ति से युद्ध करने का दृढ़ निश्चय कर रखा था। जनवरी 1941 के एक दिन समस्त भारत में यह जान कर सनसनी फैल गई कि सुभाष रात-दिन पहरा देने वाली पुलिस की आंखों में धूल झोंककर अपने कलकत्ता स्थित घर से निकल गये। तत्पश्चात् दुनिया ने सुभाष के बारे में उस समय जाना जब वे नौ मास बाद जर्मनी रेडियो से भारतीयों को संबोधित करते हुए बोले। उनका भारत से मध्य रात्रि के समय मुस्लिम साधु के रूप में पलायन, अज्ञात रूप में बीमा कंपनी का एजेंट बनकर पेशावर तक की रेल यात्रा, तत्पश्चात् काबुल तक ट्रक में यात्रा एवं 'मूक बधिर तीर्थ यात्री' के रूप में अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में प्रवास के समय पकड़े जाने का भय, कष्ट एवं गोपनीयता, मुसीबतें उस समय तक बनी रही जब तक इटली के दूतावास ने उन्हें अफगानिस्तान से बाहर निकाल कर मास्को होते हुए बर्लिन नहीं पहुंचाया। इस रोमांचक कहानी का वर्णन उनके काबुल स्थित मेजबान मित्र उत्तम चंद्र मलहोत्रा ने अपनी पुस्तिका 'सुभाष जब जियाउद्दीन थे' में किया है।

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