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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....


चितरंजनदास दो वर्ष पहले से ही कारावास में थे, गांधीजी ने राजनीति से लगभग अवकाश ग्रहण कर रखा था और मोतीलाल नेहरू अपनी रुग्ण पुत्रवधू के इलाज के लिए बाहर चले गये थे। अत: सुभाष को अपने ही साधनों पर निर्भर रहना पड़ा
परंतु उनको सी.आर. दास द्वारा पर्याप्त प्रशिक्षण मिल चुका था और मांडले जेल में उन्हें विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने की नीति पर विचार करने का पर्याप्त समय मिला था। तीस वर्ष की आयु में बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष निर्वाचित हो जाने पर वे राजनीति में पुन: सक्रिय हो गये।

ब्रिटेन की संसद ने संवैधानिक सुधारों की दूसरी किश्त देने हेतु भारत की सुयोग्यता आंकने के लिए साइमन कमीशन नियुक्त किया जिसमें सभी गोरे थे। अब भारत में इस कमीशन के बहिष्कार का उफान आया हुआ था। सुभाष बंगाल में इस कमीशन के बहिष्कार की अग्रिम पंक्ति में उसी प्रकार कार्यरत थे जैसे इससे पूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स की भारत यात्रा के विरोध में उन्होंने आंदोलन की अगुवाई की थी। उन्होंने अब संपूर्ण बंगाल छात्र संघ एवं समस्त बंगाल युवक संघ का नेतृत्व किया। वर्ष के अंत में मद्रास में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भारतीयों का लक्ष्य स्वतंत्रता घोषित किया गया। सुभाष, जवाहरलाल नेहरू और शुऐब कुरैशी के साथ तीन महामंत्रियों में से एक नियुक्त हुए। इस प्रकार प्रथम बार वे अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक नेता के रूप में उदित हुए।

दिसंबर 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के समय वाममार्गी और दक्षिण पंथी कांग्रेसियों में पहली बार शक्ति परीक्षा हुई। गांधीजी ने यह प्रस्ताव पारित किया कि 29 दिसंबर तक यदि भारत को उपनिवेश का दर्जा नहीं दिया गया तो वे असहयोग आंदोलन प्रारंभ कर देंगे। सुभाष ने स्वतंत्रता के दर्जे से नीचे कोई स्थिति न स्वीकार करने का संशोधन रखा। संशोधन के पक्ष में 973 और विपक्ष में 1350 मत पड़े, इसलिये अस्वीकार हो गया। इस मतदान में सुभाष को यह अनुभव हुआ कि मतदाताओं के मन में मतदान करते समय गांधीजी में विश्वास व्यक्त करने की भावना रही।

एक वर्ष बाद लाहौर (अविभाजित पंजाब की राजधानी) के ऐतिहासिक अधिवेशन में जवाहरलाल की अध्यक्षता में मध्य रात्रि के समय अपूर्व उत्साह के वातावरण में स्वतंत्रता का प्रस्ताव स्वीकार किया गया।

सुभाष को अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने इस पद का भार दो वर्ष तक संभाला। सुभाष चंद्र बोस का व्यक्तित्व अब स्वतंत्रता संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में जोरदार तरीके से उभरा और उन्होंने समस्त भारत के छात्र एवं युवकों को प्रेरक नेतृत्व प्रदान किया एवं श्रमिकों का सहयोग प्राप्त किया और सामान्यत: वाममार्गियों का, जो अब विदेशी सरकार से संघर्ष करने के लिए बेताब थे, नेतृत्व किया।

आगामी सात वर्षों में 33 वर्ष की आयु में सुभाष का कलकत्ता निगम के महापौर के रूप में निर्वाचन, क्षयरोग के इलाज के लिए यूरोप प्रवास, वियना में सरदार पटेल
के अग्रज विठ्ठल भाई पटेल, जो तीव्र लड़ाकू थे, से संपर्क, निषेधात्मा होते हुए भी कलकत्ता आगमन और फलस्वरूप नजरबंदी, एक बड़े आपरेशन के लिए पुनः यूरोप प्रस्थान, वीयना में भारतीय केंद्रीय यूरोपीयन सोसाइटी के सम्मेलन में सम्मिलित होना, मुसोलोनी द्वारा उद्घाटित रोम के एशियायी छात्र सम्मेलन में भाषण, आयरलैंड की यात्रा, बंबई आगमन और समुद्री जहाज पर ही पकड़ा जाना, बिना शर्त के मुक्ति, एवं यूरोप के लिए प्रस्थान, यह सब कुछ हुआ।

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