कहानी संग्रह >> आजाद हिन्द फौज की कहानी आजाद हिन्द फौज की कहानीएस. ए. अय्यर
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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....
4. राजनीति में प्रवेश
सुभाष 16 जुलाई 1921 को बंबई पहुंचे और वहां महात्मा गांधी से उनके लेबरनम
सड़क पर स्थित निवास पर मिले। उस समय उनकी आयु केवल 23 वर्ष थी। युवक सुभाष,
जो सार्वजनिक जीवन में पदापर्ण कर रहे थे, उस नेता से मिलकर अंतरंग बात करना
चाहते थे जिसने संपूर्ण देश में अंग्रेजी सरकार से असहयोग करने का आंदोलन
आरंभ कर रखा था। उनके मन में तीन प्रश्न थे। उन्हीं का उत्तर वे गांधीजी से
ज्ञात करना चाहते थे। कांग्रेस द्वारा संचालित विभिन्न कार्यक्रमों से कैसे
आशा की जा सकती थी कि उनके परिणामस्वरूप करों की आदायगी बंद हो जायेगी अथवा
सरकार की अवज्ञा करने से उसे भारत छोड़कर चले जाने के लिए कैसे बाध्य किया जा
सकता था? गांधीजी एक ही वर्ष की अवधि में स्वराज दिलाने का किस प्रकार वचन दे
सकते थे? अपनी स्वाभाविक शांतिपूर्ण मुद्रा में गांधीजी ने सुभाष के प्रश्नों
का उत्तर दिया। सुभाष पहले प्रश्न के उत्तर से संतुष्ट हुए परंतु अन्य दो
प्रश्नों के उत्तर उन्हें सन्तुष्ट न कर सके। तथापि उन्होंने गांधीजी के
कलकत्ता पहुंचकर देशबंधु चितरंजन दास से मिलने के सुझाव को स्वीकार किया।कलकत्ता पहंचकर सुभाष ने शीघ्र ही चितरंजन दास से मिलने का अवसर प्राप्त किया। अभी उनकी बातचीत समाप्त भी नहीं हुई थी कि उन्होंने निश्चय कर लिया कि उन्हें उनका नेता मिल गया है जिसका उन्हें अनुकरण करना है। उन्होंने कलकत्ते में रहकर ही देश में व्याप्त स्थिति का ज्ञान प्राप्त किया। समस्त देश में उत्साह की लहर से गांधीजी के तीन सूत्री कार्यक्रम को पर्याप्त सफलता मिलने की संभावना प्रतीत होती थी। इनमें विदेशी वस्त्रों का त्याग, विधानसभा और अदालतों एवं शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार शामिल था। उदारवादी अलग रहे और क्रांतिकारी गांधीजी के अहिंसावादी सिद्धान्त से असहमत थे। अपने आंदोलन में गांधीजी को समस्त देश की जनता का सहयोग तो मिला परन्तु फिर भी सत्ता के साथ देशव्यापी स्तर का कोई संघर्ष नहीं हुआ। कांग्रेस के इस हास के अवसर पर सरकार ने प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आने की घोषणा की। कांग्रेस तुरंत शाही दौरे के विरोध में देश व्यापी आंदोलन संगठित करने में जुट गयी। सुभाष इस युद्ध में कूद पड़े और इस विरोध का नेतृत्व करने लगे। अंग्रेज अधिकारी इस आंदोलन से घबरा गये और उन्होंने
चितरंजन दास और सुभाष सहित उनके साथियों को 10 दिसंबर 1921 की संध्या समय पकड़ कर जेल भेज दिया। सुभाष के लिए जेल जाने का यह प्रथम अवसर था। जनवरी 1941 से पूर्व जब वे भारत से अदृश्य हुए थे सरकार ने बीस वर्ष से भी कम समय में उन्हें कम-से-कम ग्यारह बार जेल भेजा। उनके प्रथम बार बंदी बनते ही उनके द्वारा संपादित बंगाल कालिज के प्राचार्य पद का कार्य, बंगाल प्रांतीय कांग्रेस समिति के प्रचार अधिकारी का कार्य एवं राष्टीय वालियंटर कोर का कार्य समाप्त हो गये।
संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में हिंसात्मक कार्यवाई होने के कारण अगले वर्ष गांधीजी ने असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया। तत्पश्चात् उन पर सरकार द्वारा अभियोग चलाया गया और उनको राजद्रोह के लिए छह वर्ष के साधारण कारावास का दंड दिया गया। उसी वर्ष के आरंभ में सुभाष को कारावास से मुक्ति मिली। वे बाढ़-पीड़ितों के सेवा कार्य में लग गये और उन्होंने 'बांगलार कथा' समाचार पत्र के संपादन का कार्य संभाला।
मोतीलाल नेहरू (जवाहरलाल नेहरू के पिता) तथा चितरंजन दास द्वारा स्थापित स्वराज पार्टी ने विधान सभाओं एवं नगर पालिकाओं में प्रवेश का पक्ष लिया तथा बंगाल कांग्रेस ने कलकत्ता निगम के चुनाव में भारी जीत हासिल की। सी.आर. दास महापौर नियुक्त हुए और उन्होंने 27 वर्ष के युवक सुभाष को मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया। अब तक के कार्यकारी अधिकारियों में सुभाष की आयु सबसे कम थी। इस पद का वेतन तीन हजार रुपये मासिक था। परंतु उन्होंने डेढ़ हजार वेतन स्वीकार किया। सुभाष निगम के कार्यों में जी-जान से लग गये और कलकत्ता नगर के नागरिकों ने एक नये नागरिक जीवन का अनुभव किया। सुभाष पर क्रांतिकारी षड्यंत्र का आरोप लगाकर अंग्रेजी सरकार ने उन्हें कैद कर लिया परंतु जनता ने यह अनुभव किया कि उनकी गिरफ्तारी का वास्तविक कारण निगम में स्वराज पार्टी के प्रशासन पर वार करना था। उन्हें बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। उस समय बर्मा भारत का ही भाग था। सुभाष को मांडले जेल में रखे जाने पर गर्व था क्योंकि इसी जेल में प्रख्यात देशभक्त लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय रह चुके थे। दो वर्ष पश्चात् सुभाष को मांडले से कलकत्ता लाया गया और वहां मई 1927 में स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्हें मुक्त कर दिया गया।
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