कहानी संग्रह >> आजाद हिन्द फौज की कहानी आजाद हिन्द फौज की कहानीएस. ए. अय्यर
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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....
अब सुभाष में राजनैतिक चेतना का उदय होने लगा। स्वतंत्र रूप से कार्यक्षेत्र
में प्रवेश करने के लिए उन्हें दो बातों ने प्ररित किया। उनमें से एक थी
प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति आम व्यवहार और
दूसरी बात ट्राम, रेल और सड़कों पर भारतीयों के साथ धृष्टता एवं असभ्यता का
बर्ताव करना। उन्होंने अपने सचेतन स्वभाव के कारण इन घटनाओं के विरोध में
प्रत्याघात किया। जब भारतीयों ने कानून व्यवस्था अपने हाथ में ले ली तो उसका
प्रभाव महत्वपूर्ण पड़ा। सुभाष ने देखा कि अंग्रेज शारीरिक बल का आदर करते थे
और इस शक्ति को अच्छी प्रकार समझते थे। प्रथम विश्व-युद्ध को भी वे अच्छी
प्रकार समझते थे। प्रथम विश्व-युद्ध से वे अच्छी प्रकार समझ गये कि सैनिक
शक्ति के बिना कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में समर्थ नहीं हो
सकता।
सुभाष ने इंटर की परीक्षा 1915 में सम्मान सहित उत्तीर्ण की और बी.ए. आनर्स
में दर्शनशास्त्र विषय लेकर प्रविष्ट हुए। आगामी वर्ष के प्रारंभ में ही एक
घटना ऐसी घटी कि उन्हें कालिज से निलंबित कर दिया गया। एक अंग्रेज प्राध्यापक
जिसका नाम ई.एफ. ओटन था भारतीय विद्यार्थियों के साथ सदैव असभ्यता का व्यवहार
करता था। विद्यार्थियों के प्रतिनिधि के रूप में सुभाष ने प्रधानाचार्य से
इसकी शिकायत
की। इस प्रकार कुछ समय के लिए विवाद शांत हो गया। परंतु फिर एक बार प्रोफेसर
ने एक विद्यार्थी के साथ हाथापाई की। विद्यार्थियों ने बदले में कालिज की
सीढ़ियों पर प्रोफेसर पर आक्रमण कर दिया। सुभाष आक्रमणकारियों में नहीं थे।
वे केवल दूर के दृष्टा थे परंतु फिर भी उनको संस्था से निष्कासित कर दिया गया
और उन्हें कटक में अपने माता-पिता के पास घर लौटना पड़ा। इस घटना ने सुभाष के
मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला और इसी से उन्होंने शहादत का प्रथम पाठ पढ़ा।
उनके अभिभावकों ने उनकी स्थिति को समझकर सहानुभूति प्रकट की। यह बात उनके लिए
आश्चर्य की थी। कालिज से हठात् अनुपस्थिति के समय उन्होंने अपने को
आध्यात्मिक एवं सामाजिक कार्यों में लगाया।
अगले वर्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय के वास्तविक एकमात्र शासक आशुतोष मुखर्जी के
हस्तक्षेप से उन्हें स्कौटिश चर्च कालिज में प्रवेश मिल गया। इस प्रकार वे
कलकत्ता आकर पुन: अध्ययन में लग गये। पुनः प्रवेश की प्रतीक्षा के दौरान
सुभाष ने 49वीं बंगाली रेजिमेंट में भर्ती होने का प्रयास किया परंतु दृष्टि
में दोष होने के कारण उन्हें अस्वीकृत कर दिया गया।
कालिज में प्रवेश लेने के पश्चात् सुभाष ने विश्वविद्यालय के भारतीय सुरक्षा
दल (प्रादेशिक सेना) में अपना नाम अंकित कराया और फोर्ट विलियम के समीप
प्रशिक्षण शिविर में सम्मिलित हुए। उन्होंने खाकी वर्दी पहनी और उत्साह के
साथ बंदूक चलाने का अभ्यास किया तथा सैनिक जीवन का खूब आनंद लिया। फोर्ट
विलियम में अपनी राइफ़ल उठाते समय गर्व से उनकी छाती फूल गयी। भारतीय होने के
कारण वे फोर्ट विलियम में प्रवेश नहीं पा सकते थे परंतु सैनिक के नाते वे
वहां प्रवेश पा गये।
उन्होंने 1919 में दर्शनशास्त्र के साथ बी.ए. आनर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी
में उत्तीर्ण की और एम.ए. में मनोविज्ञान विषय में प्रवेश लिया। कुछ समय
पश्चात उनके पिता ने उनसे ज्ञात किया कि क्या वे इंग्लैंड जाकर आई.सी.एस. की
परीक्षा में भाग लेंगे? उन दिनों आई.सी.एस. की नौकरी सर्वोत्तम मानी जाती थी
और प्रत्येक भारतीय युवक की इंग्लैंड जाकर इस परीक्षा में सम्मिलित होने की
तीव्र इच्छा रहती थी परंतु सुभाष इंग्लैंड जाकर इस परीक्षा में सम्मिलित होने
के इच्छुक नहीं थे क्योंकि इसमें उत्तीर्ण होकर वे आई.सी.एस. अधिकारी के रूप
में अंग्रेजी सरकार को सहयोग नहीं देना चाहते थे। उनका मन तो इसके विपरीत
अन्य कार्यों में रमा था। अंततोगत्वा उन्होंने इस विचार से कि इंग्लैंड में
आठ मास के प्रवास से वे आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पायेंगे
उन्होंने इंग्लैंड जाने की सहमति दे दी।
9 सितंबर, 1919 को उन्होंने इंग्लैंड के लिए समुद्री जहाज द्वारा प्रस्थान
किया और पांच सप्ताह की यात्रा के पश्चात वहां पहुंच गये। उन्होंने कैंब्रिज
विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। इसी बीच सुभाष ने अभी भारतीय समुद्र तट छोड़ा
भी न था कि अमृतसर के जलियाँ वाला बाग में अनेक स्त्री, पुरुषों एवं बच्चों
की निर्मम हत्या कर दी गयी। पंजाब में 'मार्शल ला' लगा
दिया गया और समाचारों पर पाबंदी लगा दी गयी। लाहौर
एवं अमृतसर में भयप्रद घटनाओं की अस्पष्ट अफवाहें फैल गयीं। परंतु सुभाष
निश्चितता की स्थिति में इंग्लैंड रवाना हुए थे।
कैंब्रिज में आई.सी.एस. परीक्षा की तैयारी अंग्रेजी निबंध, संस्कृत,
दर्शनशास्त्र, अंग्रेजी कानून, राजनीति विज्ञान, आधुनिक यूरोपीय इतिहास,
अंग्रेजी इतिहास, अर्थशास्त्र, एवं भूगोल विषयों पर लैक्चरों द्वारा करायी
जाती थी। वहां के विद्यार्थियों के स्वतंत्र वातावरण एवं सामान्य रूप से
विद्यार्थियों के प्रति आदरपूर्ण दृष्टिकोण ने सुभाष को प्रभावित किया। यहां
का वातावरण कलकत्ता के पुलिस आक्रांत वातावरण से सर्वथा भिन्न था। कलकत्ता
में प्रत्येक विद्यार्थी पर राजनैतिक क्रांतिकारी होने का संदेह किया जाता
था। सुभाष को आई.सी.एस. की परीक्षा की तैयारी के लिए केवल आठ मास का समय मिला
था इसलिए उन्हें सफलता की कम आशा थी। परंतु उनको स्वयं आश्चर्य हुआ जब वे इस
परीक्षा में न केवल सफल ही घोषित हुए बल्कि समस्त विद्यार्थियों में चतुर्थ
स्थान भी प्राप्त किया।
अब उन्हें अपनी जीवन वृत्ति के संबंध में कठिन निर्णय लेना था। उन्हें यह भी
ज्ञात था कि इससे उनके अभिभावकों को आघात पहुंचेगा। इस संबंध में उन्होंने
अपने बड़े भाई शरत चंद्र बोस से जो भारत में थे, काफी पत्र-व्यवहार किया।
उनके सामने यह प्रश्न था कि क्या वे अपनी अब तक की समस्त आकाक्षाओं एवं सपनों
को तिलांजलि देकर आई.सी.एस. बनकर सुखद जीवन व्यतीत करें? सात मास के मानसिक
उत्पीड़न के पश्चात् अंत में उन्होंने नियुक्ति से पूर्व ही आई.सी.एस. के पद
से त्याग-पत्र देने का निश्चय किया। अब तक किसी भारतीय ने आई.सी.एस. के
इतिहास में ऐसा नहीं किया था। अपने पत्रों में सुभाष ने लिखा था। “जब चितरंजन
दास इस आयु में प्रत्येक वस्तु त्याग सकते है और जीवन की अनिश्चितता स्वीकार
कर सकते हैं तो मुझे विश्वास है कि मुझ जैसा युवक जिस पर कोई भी लौकिक
उत्तरदायित्व नहीं है ऐसा करने में अधिक सक्षम है..."
“अरविंद घोष का उदात्त उदाहरण मेरी दृष्टि के सामने है। मैं यह अनुभव करता
हूं कि उनका उदाहरण मुझ से त्याग की अपेक्षा करता है। वह त्याग करने के लिए
मैं प्रस्तुत हं..."
"मुझे विश्वास हो गया है कि हमारे लिए अंग्रेज सरकार से संबंध विच्छेद करने
का अब समय आ गया है ..."
“किसी शासन को समाप्त करने का सर्वोत्तम तरीका यही है कि उससे अपने आपको हटा
लिया जाये... मैंने कुछ दिन पश्चात् अपना त्याग-पत्र भेज दिया..."
“चितरंजन दास ने मेरे पत्र के उत्तर में अब तक हुए कार्यों के संबंध में लिखा
है। उनकी यह शिकायत है कि कार्यकर्ताओं का अभाव है। जब मैं घर लौटूंगा तो
मेरे लिए मेरी रुचि अनुसार बहुत कार्य मिलेगा। सांचा ढल चुका है...।"
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