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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....




3. भारत और इंग्लैंड में कालेज जीवन

कालेज जीवन के प्रारंभ में ही सुभाष ने यह समझ लिया था कि मानव जीवन का कुछ विशेष अर्थ और उद्देश्य होता है जिसकी उपलब्धि मन और शरीर को नियमित अभ्यास द्वारा सुसंस्कृत करके एवं यथाशक्ति आत्म-नियंत्रण द्वारा हो सकती है। इन गुणों ने उन्हें जीवन-पर्यंत संबल दिया। कटक की जीवनचर्या में परिवर्तन की बात तो दर रही, कलकत्ते में भी सनकी लड़कों का एक बड़ा समुदाय और कालेज में उनकी कक्षा का एक ग्रुप उनके विशुद्ध और सादे व्यवहार से आकृष्ट हुआ, परंतु अन्य लड़कों ने उनमें कोई सक्रिय रुचि नहीं दिखाई।

कालेज एक राजकीय संस्था थी परंतु उसमें शिक्षा ग्रहण करने वाला समस्त समुदाय के सर्वोत्तम विद्यार्थी होने के कारण राजभक्त नहीं था। स्वतंत्र चिंतन करने वाले इन विद्यार्थियों की ओर पुलिस का ध्यान आकृष्ट हुआ। पुलिस कालेज के छात्रावास को राजविद्रोह का अनुप्रेरक क्षेत्र एवं क्रांतिकारियों का निवास समझती थी। सुभाष के ग्रुप ने अपने को नवीन विवेकानंद ग्रुप के नाम से राष्ट्रीयता और धर्म में समन्वय स्थापित करने वाले समुदाय के रूप में प्रस्तुत किया। विवेकानंद की इस शिक्षा के अनुसार कि शिक्षा क्षेत्र में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण द्वारा समाज सेवा की जा सकती है सुभाष के दल ने अपनी योजना को क्रियान्वित करने से पूर्व ही उन सुयोग्य विद्यार्थियों की सूची बनाना आरंभ किया जो भावी जीवन में प्रशिक्षित आचार्य के रूप में कार्य करने को प्रस्तुत थे। ये विद्यार्थी आतंकवादी गतिविधियों एवं गोपनीय षड़यंत्रों के विरुद्ध थे। अत: वे उस समय बंगाल में व्याप्त आतंकवादी वातावरण में बहुत लोकप्रिय नहीं थे।

बंगाल के युवकों को अरविंद घोष ने बहुत प्रभावित किया था यद्यपि वे 1910 से पांडेचेरी में निष्कासित जीवन व्यतीत कर रह थे। सुभाष अरविंद की पत्रिका 'आर्य' को नियमित रूप से पढ़ते थे और उस रहस्यवादी के गहन दर्शन एवं उच्च भावना से बहुत प्रभावित हुए थे। सुभाष के मन पर अरविंद के इन सीधे-सादे शब्दों का गहरा प्रभाव पड़ा था “मैं तुममें से कुछ को महान व्यक्ति देखना चाहता हूं, स्वयं के लिए महान नहीं अपितु भारत को महान बनाने के लिए जिससे कि वह संसार के स्वतंत्र राष्ट्रों में अपना मस्तक ऊंचा करके खड़ा हो सके। तुम में जो निर्धन
एवं नगण्य है उन्हें अपनी निर्धनता और नगण्यता ही मातृभूमि की सेवा में लगानी चाहिए। कार्य करो, जिससे मातृभूमि समृद्ध बने, उसकी खुशी के लिए कष्ट झेलो।"

सुभाष ने निर्धनों की सहायता के लिए घर-घर से दान लेकर और खाद्य-सामग्री एकत्र करके एक समाज-सेवी संस्था को सहयोग दिया और इस प्रकार स्वयं को समाज-सेवा योग्य प्रमाणित किया। कभी-कभी इस कार्य में उन्हें संकोच का अनुभव होता था। इस लज्जालु स्वभाव पर विजय पाने के लिए उन्हें पर्याप्त प्रयास करना पड़ा। उन्होंने विद्यार्थियों के कार्यक्रमों में, जैसे वाद-विवाद, बाढ़ और सूखा से पीड़ित जनता की सहायता हेतु धन एकत्र करना, एवं अधिकारियों से विद्यार्थियों के प्रतिनिधि के रूप में बातचीत करना आदि कामों में भाग लेना आरंभ किया। उन्होंने विद्यार्थियों की टोलियों में भ्रमण करने में भी अधिक रुचि ली और इस प्रकार अंतर्मुखी प्रवृत्ति से छुटकारा पाना आरंभ किया।

1914 के ग्रीष्मावकाश में वे यकायक कलकत्ता छोड़कर अपने माता-पिता को बिना सूचित किये तीर्थ-यात्रा पर निकल गये। उस समय उनकी आयु केवल 17 वर्ष की थी। वे आध्यात्मिक गुरु की खोज में ऋषिकेश, हरिद्वार, मथुरा, वृंदावन वाराणसी और गया गये। उन्हें इच्छानुकूल गुरु नहीं मिला और वे निराश होकर कलकत्ता लौट आये।

जब प्रथम विश्व-युद्ध आरंभ हुआ सुभाष टाइफाइड ज्वर से पीड़ित थे।

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