कहानी संग्रह >> आजाद हिन्द फौज की कहानी आजाद हिन्द फौज की कहानीएस. ए. अय्यर
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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....
20. क्रूर नियति
सन 1945 की मध्य जुलाई में नेताजी ने सिंगापुर से मलाया में सीरमबान के लिए
प्रस्थान किया। वहां उन्हें आई.एन.ए. से संबंधित कुछ आवश्यक विषयों पर विचार
करना था। सीरमबान के अतिथि गृह में जहां नेताजी ठहरे थे कोई रेडियो सैट नहीं
था। उन्होंने 10 अगस्त 1945 को टेलीफोन पर सुना कि रूस ने जापान के विरूद्ध
युद्ध घोषित कर दिया। अब जापानी नेताजी से क्या करने की आशा करेंगे? क्या वे उनसे यह आशा करेंगे कि वे भी रूस के विरुद्ध युद्ध घोषित करें क्योंकि वे उनके सहयोगी थे? जापानी उनसे क्या करने की आशा करेंगे, यह उनकी कठिन परीक्षा का विषय नहीं था। उनकी परीक्षा तो इस बात में थी कि वे इस बात पर विचार करें कि भारत के हित में क्या था? उन्होंने निर्णय किया कि भारत का हित रूस के विरुद्ध युद्ध करने में नहीं था क्योंकि ऐसा करने से भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखने के लिए एकमात्र अवशेष साथी भी उनके हाथ से निकल जायेगा। इसी समय रूस जापान-अधिकृत मंचूरिया में आगे बढ़ता आ रहा था।
अगस्त 12 को प्रात: दो बजे डा. लक्षमिया और गनपति सिंगापुर सीधे मोटर गाड़ी द्वारा बिना कहीं विश्राम किए सीरमबान के अतिथि गृह में पहुंचे जहां उन्होंने नेताजी को जापान द्वारा पराजय स्वीकार करने का स्तंभित करने वाला समाचार सुनाया। भारत की स्वतंत्रता की दो वर्ष की लड़ाई में आई.एन.ए. के लिए यह घोर अंधकार का समय था। इस भयंकर समाचार ने नेताजी के सब स्वप्न एकदम ध्वस्त कर दिए। अब आई.एन.ए. को सर्वत्र अधंकार ही अधंकार दिखाई देता था। जापान द्वारा पराजय स्वीकार करने के बाद आई.एन.ए. अमेरीका और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध कैसे करेगी? आई.एन.ए सामग्री के अभाव में युद्ध समाप्त कर सकती थी परंतु पराजय स्वीकार नहीं करेगी। आई.एन.ए. को बंदी बनाया जा सकता था परंतु अधिकारी एवं सैनिक पराजय स्वीकार नहीं करेंगे अथवा श्वेत झंडा नहीं दिखायेंगे। आई.एन.ए. देशभक्ति की ज्योति को तीव्रता से जलाये रखेगी। जापान द्वारा पराजय स्वीकार करने के समाचार और आई.एन.ए. पर उसके विनाशकारी प्रभाव की नेताजी पर उस समय यही प्रतिक्रिया हुई। नेताजी प्रात: 5 बजे तक अपने भावी कार्यक्रम के विषय में शांतिपूर्वक विचार
करते हुए जागते रहे। उन्होंने ब्रिटिश-अधिकृत बर्मा के अतिरिक्त पूर्वी एशिया में स्थित आई.एन.ए. एवं स्वतंत्रता लीग की समस्त इकाइयों को आवश्यक निर्देश निर्गत किए।
भावी स्वतंत्र भारत के भव्य सपनों को संजोने वाला वह स्वप्नदृष्टा जापान की पराजय के पश्चात् वास्तविकता की लौकिक भूमि पर आकर तुरंत दुखद परिस्थिति से निबटने के लिए भावी कार्यक्रम बनाने में लग गया। अब पूर्वी एशिया के तीस लाख देशभक्त भारतीय क्या करेंगे? संसार की समस्त जातियों के इतिहास में जो विदेशी शक्तियों के साथ अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थी, भारतीयों के त्याग एवं कष्ट के समान कम उदाहरण थे। धनी व्यक्तियों ने अपना धन एवं अति निर्धन व्यक्तियों ने यहां तक कि श्रमिकों, फेरी वालों एवं मोचियों ने अपना सर्वस्व, अपना जीवन भी देश के लिए अर्पित कर दिया था। नेताजी के संकेत पर वे वास्तव में स्वतंत्रता के लिए दीवाने हो गए थे। उनका उत्साह पराकाष्ठा पर पहुंच गया था और वे किसी भी समय अपने स्वतंत्र भारत में प्रवेश की आशा करते थे।
परंतु क्रूर नियति ने उनके स्वप्नों पर नृशंस पर्दा डाल दिया। यकायक उनको अपने मानसिक उद्वेगों को शांत करना पड़ा परंतु उनका यह मानसिक कष्ट क्षणिक था। यद्यपि आई.एन.ए. अब युद्धरत नहीं थी परंतु अब भी उसका मस्तक ऊंचा था। उसकी विरोधी भावना अक्षुण्य थी। और उसका ज्येष्ठतम कमांडर विश्व युद्ध के समस्त कमांडरों में श्रेष्ठ था। वह अपने को पराजित नहीं समझता था क्योंकि वह क्रांतिकारी सेना का कमांडर था जो कभी पराजय स्वीकार नहीं करती। उनके लिए यह विपर्य क्षणिक था। नेताजी ने अपने सैनिकों से बार-बार कहा था "केवल वही सेना पराजित होती है जो अपने को पराजित हुआ समक्षती है। एक सच्ची क्रांतिकारी सेना संसार की किसी भी शक्ति का अथवा संयुक्त शक्तियों का सामना कर सकती है।" जब जापान की पराजय के साथ विश्व युद्ध समाप्त हुआ तब संपूर्ण आई.एन.ए. में उपर्युक्त भावना व्याप्त थी।
उच्च भावनाओं के तीस लाख व्यक्तियों और अपराजित आई.एन.ए. के साथ नेताजी चट्टान के समान दृढ़ खड़े थे। उन्होंने अपने जीवन के उद्देश्य की विफलता की कठोर वास्तविकता का अनुभव सैनिक विफलता में किया परंतु अपने सैनिक प्रयासों की आध्यात्मिक स्तर पर सफलता के लिए वे पूर्णतया आश्वस्त थे। उनके मन में तनिक भी संदेह नहीं था कि जब भारतवासियों को आज़ाद हिंद सरकार के नेतृत्व में आई.एन.ए. की अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजी सेना के साथ युद्ध में शौर्य प्रदर्शन और 14 अप्रैल 1944 को मोरांग में (मनीपुर राज्य) तिरंगा पहराने
की घटनाएं ज्ञात होंगी तो उनका वक्षस्थल गर्व से फूल जायेगा और इससे समस्त भारत में एक मनोवैज्ञानिक क्रांति होगी जिससे ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें हिल जायेंगी।
सीरमबान में उपस्थित क्रियाशील नेताजी जापान की पराजय स्वीकार करने की घटना को सुनकर तुरंत कार्य में लग गये। वे तुरंत कार से 12 अगस्त 1945 को सिंगापुर के लिए चल दिये। उसी दिन संध्या समय वहां पहुंचे और शीघ्र स्नान एवं भोजन के पश्चात् मंत्रियों एव परामर्श-दाताओं के अनेक सम्मेलनों में विचार विमर्श में डूब गए। जैसे रंगून में वैसे ही सिंगापुर में प्रश्न था कि नेताजी को अब क्या करना चाहिए? क्या उन्हें सिंगापुर में ठहरकर ही अपने सैनिकों के साथ बंदी हो जाना चाहिए? नहीं, तो वे कहां जाएं? क्या जापानी उन्हें रूस से संपर्क करने में सहयोग देंगे? यद्यपि मंत्रिमंडल की बैठक 12 अगस्त से 14 अगस्त तक रात-दिन करीब-करीब लगातार होती रही परंतु अंतिम रूप से कुछ भी निर्णय नहीं हो पाया। मंत्रिमंडल नेताजी की भावी स्थिति पर उन्हीं की उपस्थिति में इस प्रकार विचार कर रहे थे जैसे वे वहां थे ही नहीं। एक मंत्री ने कहा, “महोदय ! यदि आपको अंग्रेजी सरकार ने बंदी बना लिया और यहां अथवा भारत में ब्रिटिश सम्राट के विरूद्ध युद्ध करने के अपराध में अभियोग चलाकर गोली मारने का दंड दिया तो ऐसी स्थिति में समस्त भारत उठ खड़ा होगा और उसे स्वतंत्रता मिल जायेगी? इसके विपरीत यदि अंग्रेज आपको स्वतंत्र कर देंगे तो भी यह भारत के हित में होगा। दोनों स्थिति भारत के लिए लाभप्रद होंगी।" नेताजी अब भी यही आग्रह कर रहे थे कि वे वहीं रहकर अपने सैनिकों के साथ बंदी होंगे। इस समय यही अनिश्चित निर्णय हुआ।
परंतु स्थिति में एकदम परिवर्तन उस समय आया जब अस्थायी सरकार के विधि परामर्शदाता ए.एन. सरकार बैंकाक से जापानी सैनिक अधिकारियों की ओर से नेताजी के लिए 14 अगस्त की शाम को एक महत्वपूर्ण संदेश लेकर एकाएक पहुंचे। मंत्रीमंडल के सदस्यों का कुछ-कुछ ऐसा अनुमान था कि जापनियों ने नेताजी को रूस अधिकृत मंचूरिया जाने की सुविधा देने का विश्वास दिलाया था। तत्पश्चात् उनका उत्तरदायित्व समाप्त हो जायेगा और फिर नेताजी का अपना कार्य होगा। वे स्वयं मंचूरिया में रूसियों से संपर्क करें और बंदी हो जाने का जोखम भी उठावें। परंतु नेताजी को विश्वास था कि मंचूरिया स्थित रूसी इतने बड़े भारतीय राष्ट्रीय नेता को शीघ्र ही मास्को में अपने उच्चतम अधिकारियों के पास स्थानांतरित कर देंगे। यही वे चाहते थे। इसके लिए चार वर्ष पूर्व सन 1941 में उन्होंने काबुल में रूसी राजदूत से मिलने का अत्यधिक प्रयास किया था और मास्को जाने के लिए पारपत्र लेना चाहा था। क्योंकि वे काबुल में उस समय रूसी राजदूत की सहायता नहीं प्राप्त कर सके थे, इसलिए वे इटली दूतावास की सहायता से जर्मनी गये। इसे वे दूसरी श्रेणी का सबसे
अच्छा प्रबंध समझते थे। परंतु उन्होंने मास्को को अपने कार्यो का आधार स्थान बनाने की इच्छा को छोड़ा नहीं था। यदि उनके अन्य दिशाओं में सब प्रयास विफल हो जाते तो मास्को ही से अपना कार्य आरंभ करने की अपनी इच्छा उन्होंने कभी नहीं त्यागी थी।
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