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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....


21. "अज्ञात यात्रा की ओर"

15 अगस्त 1945 को जापान की पराजय का समाचार अधिकृत रूस से संसार के सभी रेडियो से प्रसारित हुआ। नेताजी और उनके मंत्रिमंडल ने एकमत होकर यह निश्चय किया कि उन्हें अगले दिन प्रात:काल सिंगापुर से बैंकाक होते हुए रूस अधिकृत मंचूरिया क्षेत्र के लिए प्रस्थान करना था। 15 तारीख को नेताजी ने रात भर बैठकर भारतीय स्वतंत्रता लीग और आई.एन.ए. की समस्त शाखाओं को इस आशय के विस्तृत निर्देश दिये कि आई.एन.ए. को नागरिकों की कैसे रक्षा करनी थी, विजयी एंग्लो-अमेरिकनों के साथ किस प्रकार व्यवहार करना था ? रानी झांसी रेजिमेंट की लड़कियों की भोजन व्यवस्था, उनकी देखभाल और उनके लिए धन की व्यवस्था करनी थी जिससे वे शत्रु द्वारा अधिकृत क्षेत्र से बिना कष्ट उठाये मुक्त हो सकें।

दिन के आरंभ में नेताजी ने कर्नल सी.जे. स्ट्रेसी को बुलाया और उन्हें स्पष्ट निर्देश दिये कि वे सिंगापुर में समुद्र के किनारे आज़ाद हिंद फ़ौज के शहीद स्मारक का निर्माण कार्य पूर्ण करें। इस स्मारक की आधार शिला नेताजी ने आठ अगस्त को रखी थी। स्ट्रेसी ने गंभीरता से वचन दिया कि वे अंग्रेजों के सिंगापर पहंचने से पूर्व ही स्मारक का कार्य पूर्ण करा लेंगे। अंग्रेजों ने सिंगापुर पहुंचने के पश्चात् प्रथम कार्य देशभक्त सेना के शहीदों के स्मारक को ध्वस्त करने का किया। इस प्रकार स्मारक को नष्ट करने के कार्य का उदाहरण सभ्य समाज के युद्ध में कहीं नहीं मिलेगा।

सिंगापुर छोड़ने से पूर्व नेताजी ने 15 अगस्त को दो विशेष आदेश और जारी किये। एक आदेश में जापान के पराजय स्वीकार करने के पश्चात् उन्होंने आई.एन.ए. को संबोधित करते हुए कहा, “ दिल्ली जाने के लिए कितने ही रास्ते हैं और दिल्ली पहुंचना अब भी हमारा लक्ष्य है।" और दूसरी आज्ञा में उन्होंने पूर्वी एशिया निवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए कहा, "हमारे इतिहास में इस अपूर्व संकट के समय मुझे एक ही बात कहनी है। अपनी इस अस्थायी विफलता से हतोत्साहित न हों। प्रसन्न रहें एवं अपने उत्साह को नीचे न गिरने दें और भारत के भविष्य के संबंध में अपने विश्वास को सदैव दृढ़ रखें। भारत स्वतंत्र होगा और निकट भविष्य में ही होगा। जय हिंद।" सुभाषचंद्र बोस।

अगस्त 16 का प्रात:काल निकट था। नेताजी अपनी डेस्क से उठे और शीघ्र अपना कुछ निजी सामान जिसमें वस्त्रों का एक बंडल भी था, संभाला और उस यात्रा के लिए तैयार हुए जिसे वे "अज्ञात लक्ष्य की ओर अभियान" कहते थे। वे सिंगापुर अंतिम बार छोड़ रहे थे। इस अनिश्चित लक्ष्य की यात्रा में उनके साथ कर्नल हबीबुर्रहमान जो स्टाफ के उपमुख्य अधिकारी थे, कर्नल प्रीतम सिंह और इस पुस्तक के लेखक थे। हम एक बोंबर हवाई जहाज में प्रात: दस बजे सवार हुए और उसी दिन अपराह्न में बैंकाक पहुंच गये। कुछ ही क्षणों मे नेताजी के वहां पहुंचने का समाचार यहां के रहने वाले समस्त भारतीयों में फैल गया और तब से उस समय तक जब तक नेताजी और उनकी पार्टी के व्यक्तियों ने दूसरे दिन प्रात: हवाई अड्डे के लिए प्रस्थान नहीं किया नेताजी के निवास स्थान और वहां तक पहंचने के मार्गों पर भारतीयों की अपार भीड़ एकत्र रही। वे यह जानने के लिए उत्सुक थे कि नेताजी का भावी कार्यक्रम क्या था? और उनका गंतव्य स्थान कहां था? मध्य रात्रि के लगभग उन्होंने भोजन किया और सैनिक तथा नागरिक अधिकारियों एवं स्थानीय नेताओं से प्रात:काल कुछ ही क्षणों के लिए सोने से पूर्व तक बातचीत की।

17 अगस्त 1945 के प्रात:काल ही नेताजी बैंकाक हवाई अड्डे के लिए उन लोगों से अश्रुपूर्ण विदाई लेकर चले जो उनके बंगले पर संपूर्ण रात्रि रहे थे। विदाई देने वालों में आपूर्ति विभाग मंत्री परमानंद, चीफ आफ स्टाफ मेजर जनरल भोंसले, सिंगापुर एवं रंगून के मुख्यालयों के वैयक्तिक सचिव पी.एन. पिल्लई एवं 1943 से जब नेताजी सिंगापुर आये थे उनके विश्वस्त स्टैनो भासकरन भी सम्मिलित थे। बैंकाक से सैगोन जाने वाली नेताजी की पार्टी में कर्नल हबीबुर्रहमान, कर्नल गुलजारा सिंह, कर्नल प्रीतम सिंह और सन् 1942 में नेताजी की जर्मनी से जापान की पनडुब्बी में 90 दिन की यात्रा के एकमात्र भारतीय साथी मेजर आबिद हसन एवं परामर्शदाता तथा रंगून में लीग के मुख्यालय के महासचिव देवनाथ दास एवं इस पुस्तक के लेखक सम्मिलित थे। जनरल इसोडा, श्री हचिया और जापानी दुभाषिया श्री नार्गशी भी इस पार्टी में थे। हम दो हवाई जहाजों में थे और सैगोन में दस बजे प्रात: पहुंच गये थे। वहां हम सैगोन लीग के एक अधिकारी नारायण दास के निवास पर गये। जनरल इसोडा हवाई अड्डे से तुरंत दक्षिणी पूर्वी भाग की जापानी सेना के सुप्रीम कमांडर फील्ड मार्शल काउंट टरोची के मुख्यालय एवं स्वास्थ्य केंद्र दलात चले गये। जनरल इसोडा दलात से अपराह्न से पूर्व ही वापस आ गये और सीधे मोटर द्वारा नेताजी के निवास पर पहुंचे।

संभवत: नेताजी के जीवन का सबसे अधिक महत्व का क्षण वह था जब उन्हें तुरंत इस बात का निर्णय करना था कि क्या वे जापानी बोंबर में उपलब्ध एक-मात्र सीट का उपयोग करके अपनी अंतिम ज्ञात यात्रा पर जाना स्वीकार करेंगे? बोंबर सैगोन हवाई अड्डे से एक मिनट के नोटिस पर चलने के लिए इतना तैयार था कि इसके इंजन चल रहे थे। हवाई अड्डे से कुछ ही दूर नेताजी कुछ घंटे पहले जिस घर में आये थे उसी घर में उन्होंने खड़े-खड़े साथियों से शीघ्र विचार-विमर्श किया। कोई औपचारिकता नहीं दिखाई गई। किसी ने किसी से बैठने के लिए नहीं कहा और न किसी ने जल पीने के लिए पूछा यद्यपि दिन की गर्मी और थकान के कारण सब प्यासे थे। जापानी इस बात पर दृढ़ थे कि वे उन्हें एक ही सीट दे सकते थे। उसे स्वीकार करो अथवा छोड दो। उस सीट को स्वीकार कर लेने की दशा में नेताजी के साथ कोई भी भारतीय नहीं होगा और उड़ान में यदि कोई घटना घटी तो नेताजी को क्या हुआ? इसका कोई भारतीय साक्षी नहीं होगा। यदि वे सीट अस्वीकार करके सैगोन रह जाते तो अंग्रेजी-अमेरिका सेना जो किसी दिन भी सैगोन पहुंच सकती थी उन्हें निश्चय ही बंदी बना लेगी। इस प्रकार अंग्रेजी-अमेरिका सेना से बच निकलने की योजना समाप्त हो जायेगी और वे किसी उपयुक्त स्थान से स्वतंत्रता की लड़ाई जारी नहीं रख सकेंगे। अत: उन्हें एक कष्टप्रद निर्णय लेना था। उन्होंने अपने मन में निर्णय ले लिया था। जब उन्होंने अपने साथियों से शीघ्र उत्तर देने के लिए कहा तो उन्होंने विवशता से सहमति दे दी। उन्हें बिना किसी साथी के लिए अकेले ही यात्रा पर जाना था। परंतु अंतिम समय जापानियों ने उन्हें एक सीट और दे दी। कर्नल हबीबुर्रहमान सैगोन से उनके साथ उस अंतिम ज्ञात यात्रा पर गये।

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