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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....


18. दुखांत पराजय

इस अप्रिय तथ्य को छिपाया नहीं जा सकता कि आई.एन.ए. की कोहिमा एवं इंफाल में पराजय एक दुखद घटना थी। यदि आई.एन.ए. इंफाल और कोहिमा में विजयी हो जाती तो उसे बंगाल और आसाम में आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता था। उस समय भारत का प्रत्येक व्यक्ति अंग्रेज शासकों के विरुद्ध खड़ा हो जाता और आई.एन.ए. की विजय-यात्रा के लिए दिल्ली पथ का द्वार खुल जाता।

परंतु ऐसा नहीं होना था। मूसलाधार वर्षा, कीचड़, दलदल, सामग्री पंक्ति में अवरोध, खाद्य वस्तु और औषधियों के अभाव में आई.एन.ए त्रस्त हो गयी और युद्ध-मुख के पीछे हटना पड़ा। हैजा, दस्त एवं मलेरिया ने अनेक सैनिकों का जीवन ले लिया परंतु अवशेष सैनिक आधार स्थल पर स्थित औषधालयों में लड़खड़ाते हुए पहुंच गए। वे शीघ्र स्वस्थ होने के लिए व्याकुल थे। वे अपनी राइफल लेकर पुन: युद्ध भूमि में लड़कर अपना जीवन उत्सर्ग करने के इच्छुक थे। उन्हें नेताजी के केवल ये ही शब्द स्मरण हो आते थे कि “जब तुम खड़े हो तो चट्टान के समान दृढ़ता से खड़े हो, जब आगे बढ़ो तो स्टीम रोलर के समान आगे बढ़ो।"

बर्मा और भारत सीमा पर सैनिक कार्यवाई की संपूर्ण कहानी, इंफाल और कोहिमा में आई.एन.ए. एवं सैनिकों के व्यक्तिगत वीरतापूर्ण पराक्रम का विशद विवेचन मेजर जनरल शाहनवाज ने अपनी पुस्तक "आई.एन.ए. और उसके नेताजी" में किया है। आई.एन.ए. की एक बिछड़ी हुई टुकड़ी जिसने ग्यारह दिन जंगल में घास खा-खाकर युद्ध जारी रखा एक कहानी के रूप में स्मरण की जाती है और यह अनेक कहानियों में से एक है जिसे भावी पीढ़ियां पढ़कर अपने अद्वितीय वीरों के गौरव एवं गरिमायुक्त प्रशंसनीय कार्यों को स्मरण करेंगी।

इस पराजय से नेताजी निरुत्साहित नहीं हुए। उन्होंने बर्मा के जनसाधारण को आई.एन.ए. की विफलता को सत्य एवं दुखद घटना बतायी और उनसे अधिक धन, अधिक सामग्री एवं अधिक सैनिकों की भर्ती कराकर इंफाल पर पुनः आक्रमण करने के लिए अपने प्रयासों को दुगुना करने का आग्रह किया। नेताजी ने गर्जना की-"हम इंफाल पर पुनः आक्रमण करेंगे, एक बार नहीं, दस बार। मैं चाहता हूं कि तुम स्वतंत्रता के लिए दीवाने हो जाओ। करो सब न्योछावर, बनो सब फकीर।" नेताजी
के उत्साह से भारतीय अभिभूत हो गए और अब वे और अधिक शक्ति के साथ युद्ध कार्यों में सहयोग देने के लिए सन्नद्ध हो गए। जनता के मन में सैनिक विफलता से पश्चाताप एवं निराशा उत्पन्न नहीं हुई। उन्होंने बड़े पैमाने पर रंगून में नेताजी सप्ताह मनाने का आयोजन किया। अपने मंत्रियों से घिरे हुए नेताजी मंच पर खड़े हुए। पुरुष, स्त्री एवं बच्चों ने थालों में स्वर्ण, चांदी, आभूषण एवं अन्य छोटी वस्तुएं भरकर नेताजी को एक अनंत जलूस के रूप में जाकर भेंट की। कुछ ऐसे युवकों ने जिनके पास भेंट करने को कोई सामग्री नहीं थी खून से लिखकर इस आशय का शपथ-पत्र भेंट किया कि वे अपनी मातृभूमि की बलिवेदी पर अपना जीवन उत्सर्ग करने को प्रस्तुत थे। उनका यह कार्य पूर्वी एशिया के समस्त युवकों की ओर से नेताजी के आह्वान के प्रत्युत्तर का प्रतीक था। नेताजी ने कहा था-"तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।" उन्होंने पूर्वी एशिया निवासी तीस लाख भारतीयों से कहा था कि विश्व के इतिहास में किसी देश ने भी बिना खून बहाये स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की। यह उसका मूल्य है जो हमें नि:संकोच चुकाना है।"

परंतु देशभक्ति की यह उच्च भावना व्यर्थ गयी। आई.एन.ए. के प्रत्यावर्तन के पश्चात् ही शक्तिशाली शत्रु सेना ने प्रत्याक्रमण आरंभ कर दिया। शत्रु सेना संख्या में बहुत अधिक थी। उनके पास हवाई जहाज, टैंक, तोपखाना, राइफल एवं गोला-बारुद बहुत अधिक था। प्रत्याक्रमण का लक्ष्य मैकटीला था परंतु वास्तव में उनका अंतिम लक्ष्य रंगून था।

विजयी शत्रु सेना जब मांडले को पार कर रही थी तो उन्हें आई.एन.ए. के सैनिकों के प्रज्वलित एवं अदम्य उत्साह का अनुभव हुआ। उन्होंने मांडले में भारतीयों का 'जयहिंद' द्वारा अभिवादन करना वर्जित कर दिया था क्योंकि यह अभिवादन उस सबका प्रतीक था जिसके लिए आई.एन.ए. एवं नेताजी युद्ध कर रहे थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन जब शिखर पर था तब नौ वर्ष से ऊपर की आयु के लड़के एवं लड़कियों को नौ सप्ताह का गहन प्रशिक्षण दिया गया था। निषेध आज्ञा के विरोध में एवं अपने जीवन और शरीर की कोई चिंता न करके युवक और युवतियां जब अंग्रेजी सेना उनके मध्य से जाती थी उनके कान पर 'जयहिंद' कहकर चिल्लाते थे और जब सैनिक इन राजद्रोहियों को पकड़ने का प्रयास करते थे तो वे उन्हें धोखा देकर तुरंत भाग जाते थे। ये बाल सेना और बालिका सेना पूर्वी एशिया में सर्वत्र आई.एन.ए. एवं रानी झांसी रेजीमेंट की सहायता के लिए बनायी गयी थी।

अब कुछ ही दिनों में अंग्रेजी सेना रंगून पहुंचने वाली थी तो प्रश्न यह था कि अब नेताजी का अगला कदम क्या होगा? इस विषय पर अस्थायी सरकार को एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना था। रंगून में उपस्थित मंत्रिमंडल के सदस्य इस बात पर एक
मत थे कि नेताजी को किसी दशा में भी शत्रुओं के हाथ में नहीं जाना है। अत: उन्हें आगे बढ़ते हुए शत्रु से दूर थाईलैंड, हिंदचीन, जावा अथवा फिलीपीन यहां तक कि जापान कहीं भी पूर्व की ओर चला जाना चाहिए। परंतु नेताजी को इसके लिए तैयार करना कठिन था। वे इस बात पर दृढ़ थे कि वे रंगन में ठहरकर अपने सैनिक साथियों के साथ उनके भाग्य में भागीदार होंगे।

अंत में मंत्रिमंडल ने उनसे यह कहकर कि वे किसी अन्य स्थान से लड़ाई जारी रखने के लिए स्वतंत्र होंगे, रंगून छोड़ने पर सहमत कर लिया। नेताजी ने रंगून छोड़ने की सहमति अनिच्छा से दी परंतु उनको सबसे अधिक चिंता उन सैकड़ों लड़कियों के संबंध में थी जो रानी झांसी रेजीमेंट में सैनिक थीं। वे इस बात पर दृढ़ थे कि जब तक लड़कियों को रेल अथवा सड़क परिवहन द्वारा थाईलैंड नहीं भेज दिया जायेगा तब तक वे रंगून नहीं छोड़ेंगे।

रंगन छोड़ने से पूर्व उस दिन के विशेष आदेश प्रेषित करते समय उन्होंने आज़ाद हिंद फौज के वीर अधिकारियों एवं सैनिकों से कहा-“साथियो! इस महत्वपूर्ण समय पर मुझे तुम्हें एक ही आज्ञा देनी है और वह यह है कि यदि तुम्हें कुछ समय के लिए दबना भी पड़े तो तिरंगे को ऊंचा रखकर उसे स्वीकार करना, वीरों के समान पराजय स्वीकार करना, पराजय उच्चकोटि के अनुशासन एवं सम्मान के साथ स्वीकार करना।"

भारतीय और बर्मा निवासी मित्रों के लिए संदेश में उन्होंने भारतीयों के आत्म बलिदान की भावना की प्रशंसा की और बर्मा निवासियों से भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में जो सहायता दी उसके लिए उन्होंने बर्मा की सरकार और नागरिकों के प्रति आभार प्रकट किया।

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