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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....


12. तूफानी नेतृत्व

जिस दिन से नेताजी ने रासबिहारी बोस से कार्यभार ग्रहण किया उसी दिन से वे अपने नये कार्य में जी-जान से लग गये। उस दिन से वे 25 मास निरंतर अंथक परिश्रम से कार्य करते रहे। इस अवधि के अंत में वे सैगोन से अपनी अंतिम ज्ञात यात्रा के लिए एक मध्यम श्रेणी के युद्ध-पोत में सवार हुए।

5 अप्रैल 1943 को उन्होंने सिंगापुर में टाउन हाल के सामने एक बड़े मैदान में आई.एन.ए. के अधिकारियों एवं सैनिकों से एक भव्य परेड में सलामी ली। खाकी वर्दी पहने हुए नेताजी श्रेणीबद्ध सैनिकों के बीच होते हए चले और फिर उनको प्रेरणापद शब्दों में भाषण देने के लिए व्याख्यान स्थल पर आये। उन्होंने कहा, "भारत की मुक्ति सेना के सैनिको! आज मेरे जीवन का अति गौरवमय दिन है... । प्रत्येक भारतवासी को इस बात पर गर्व करना चाहिए कि यह सेना एक भारतीय के नेतृत्व में बनी है और ऐतिहासिक अवसर आने पर एक भारतीय के नेतृत्व में ही युद्ध के मैदान में उतरेगी...। तुम्हारा युद्ध का नारा होगा 'चलो दिल्ली' 'चलो दिल्ली'...। हमारा काम उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक हमारे अवशेष वीर सैनिकों की विजय परेड दिल्ली में लाल किले के मैदान में अंग्रेजी साम्राज्य की दूसरी श्मशान भूमि पर नहीं होगी।"

दूसरे दिन छह जुलाई को जापान के प्रधानमंत्री जनरल तोजो सिंगापुर कुछ समय के लिए आये और उसी मैदान में उन्होंने आई.एन.ए. की परेड देखी। उन्होंने मुक्ति सेना को उसकी चुस्ती के लिए बधाई दी।

तीन दिन पश्चात् सिंगापुर में एक उत्साहवर्धक सामूहिक रैली में भाषण देते हुए जी ने संपूर्ण सेना से अंतिम युद्ध के लिए तैयार होने हेतु भावुक अपील की: "मुझे तीन लाख सैनिक और तीन करोड़ डालर चाहिए। मुझे एक मृत्यु से न डरने वाली भारतीय महिलाओं का दल भी चाहिए जो 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना झांसी की रानी की तरह युद्ध में तलवार चला सके।"

उन्होंने अपना समय भारतीय स्वतंत्रता लीग एवं आजाद हिंद फौज के कार्यालयों को देखने के लिए बांट लिया और दोनों कार्यालयों में नियमित रूप से जाने लगे। उन्होंने लीग और आई.एन.ए. की संस्थाओं का विस्तार एवं पुनर्गठन किया। लीग
के मुख्यालय में निम्नलिखित विभाग कार्यरत थे-सामान्य विभाग, वित्त, सूचना और प्रचार, गुप्तचर विभाग, भर्ती एवं प्रशिक्षण। नेताजी ने इन विभागों को बल प्रदान किया और सात नये विभाग बढ़ाये। स्वास्थ्य एवं समाज कल्याण, महिलाओं का विषय, राष्ट्रीय शिक्षा एवं संस्कृति, पुनर्निर्माण विभाग, आपूर्ति, विदेश, आवास तथा परिवहन। डा. लक्ष्मी स्वामीनाथन, जो बाद में झांसी की रानी रेजिमेंट की कमांडेंट बनी, को महिला विभाग का अध्यक्ष बनाया।

आई.एन.ए. में एक नवीन उत्साह दौड़ गया। पुनर्गठित आई.एन.ए. का एक प्रमुख लक्षण यह था कि उसके दैनिक कार्यों में अब ‘एकता, निष्ठा एवं त्याग' के उच्चतम आदर्श की भावना उदय हुई थी। समस्त सैनिकों में एक उच्च कोटि की जातीय एकता की भावना जाग्रत हुई और सभी के लिए एक भोजनालय की व्यवस्था की गयी जो इस जातीय एकता एवं भ्रातभावना के प्रतीकों में से एक था।

नेताजी ने मलाया का एक तूफानी दौरा किया और उस क्षेत्र में भारतीयों की सैकड़ों सभाओं में व्याख्यान दिये। इस दौरे के फलस्वरूप भारतीय जनशक्ति पूर्णतया सक्रिय हो गयी और नेताजी के पास धन भी आने लगा। समस्त पूर्वी एशिया में लीग संस्थान ने बहुत तेजी से कार्य किया।

आई.एन.ए. में सम्मिलित होने के इच्छुक स्वयंसेवकों की भर्ती और प्रशिक्षण के लिए शिविर खोले गये। हजारों की संख्या में अपने घरों एवं व्यवसाय को छोड़कर आये हुए देशभक्त भारतीय युवकों को, जो भारत की स्वतंत्रता की सशस्त्र लड़ाई में अपने जीवन की आहुति देने के लिये प्रस्तुत थे, प्रशिक्षण देने हेतु शस्त्र एवं अन्य आवश्यक सामग्री जुटाने की समस्या थी। मलाया और सिंगापुर में समस्त भारतीय जनता में यह उत्साह लगभग पराकाष्ठा पर पहुंच गया था।

नेताजी को संतोष था कि तीन मास में आई.एन.ए. पूर्णरूपेण पुनर्गठित होकर युद्ध करने की स्थिति में थी। वे इस बात से भी संतुष्ट थे कि पूर्व एशिया में भारतीय नागरिक पूर्णरूप से सक्रिय होने के लिए तैयार थे। जैसा कि उन्होंने जुलाई में आंदोलन का नेतृत्व ग्रहण करते समय अपने भाषण में कहा था अब उन्होंने दूसरा स्वाभाविक कदम स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाने के लिए उठाया।

उन्होंने केवल चार मास में संदेह, अविश्वास, एवं अस्त-व्यस्त प्रयासों के वातावरण को देशभक्ति, पूर्ण विश्वास एवं भारत की स्वतंत्रता के लिए आत्मोत्सर्ग करने को तत्पर रहने की भावना में परिवर्तित कर दिया। आई.एन.ए. का आदर्श ‘एकता, विश्वास और त्याग' अब आश्चर्यजनक वास्तविकता बन गया।

सिंगापुर में उतरने के चार मास से भी कम समय में नेताजी ने पूर्व में जापान से लेकर पश्चिम में बर्मा तक भारतीयों के संपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन को सुदृढ़ कर दिया था। आई.एन.ए. अब एक शक्तिशाली इकाई के रूप में संगठित थी और युद्ध स्थल की ओर प्रयाण के लिए तैयार थी। सामान्य नागरिक देश की स्वतंत्रता के लिए सब कुछ त्यागने के लिए प्रस्तुत थे, यहां तक कि वे स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना जीवन देने को भी तैयार थे। सितंबर में हुई एक जनसभा में नेताजी के इस संकेत ने कि वर्ष के अंत तक आई.एन.ए. भारत भूमि पर खड़ी होगी, उच्च आशाओं को प्रस्फुटित किया। संभवत: उन्हें जापानियों से कुछ गोपनीय सूचना प्राप्त हुई थी जिसके कारण नेताजी ने यह संकेत दिया था। इस तरह नेताजी का क्रियाशील नेतृत्व आंदोलन को बहुत तेजी के साथ शिखर की ओर ले जा रहा था।

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