कहानी संग्रह >> आजाद हिन्द फौज की कहानी आजाद हिन्द फौज की कहानीएस. ए. अय्यर
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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....
11. पूर्व एशिया में नेताजी का आगमन
जर्मनी एवं जापान की सरकारों से बीच अनिवार्य बातचीत के फलस्वरूप नेताजी
सुभाष चंद्र बोस आबिद हसन के साथ 8 फरवरी 1943 को प्रात:काल कील में एक
पनडुब्बी में सवार हुए। मेडागास्कर से 400 मील की दूरी पर हिंद महासागर में
जापान की पनडुब्बी जर्मनी नौका से मिली और 28 अप्रैल को वह और उनके साथी
उसमें सुरक्षित स्थानांतरित कर दिये गये। वे सुमात्रा के उत्तरी तट पर 6 मई
को उतरे और वहां एक सप्ताह इंताजार करने के पश्चात् हवाई जहाज से 16 मई 1943
को टोकियो पहुंचे। यह वास्तव में सुभाष के जीवन में एक महत्वपूर्ण दिन था।
क्योंकि शत्रुओं से घिरे हुए समुद्र में पनडुब्बी की खतरनाक यात्रा 90 दिन
पश्चात् उस दिन समाप्त हुई थी। जब नेताजी सुमात्रा उतरे तो उन्हें एक सुखद
आश्चर्य हुआ। पहला व्यक्ति जिसने वहां उनका अभिवादन किया उनका पुराना मित्र
कर्नल यामामोटो था जो टोकियो पहुंचने के तुरंत बाद नेताजी ने जापान के अधिकारियों से आवश्यक बातचीत की। अपने प्रवास के दौरान वह जापान के प्रधान मंत्री जनरल तोजो से दो बार मिले। उनसे मिलकर वह अपने देश को स्वतंत्र कराने की योजना के संबंध में एक आम समझौते पर पहुंचे और जापान उनकी किस हद तक सहायता करेगा इसका ज्ञान भी उन्होंने प्राप्त किया। प्रधान मंत्री जनरल तोजो ने नेताजी को जापानी डायट (संसद) में आमंत्रित किया और वहां उन्होंने नेताजी की ओर देखकर डायट से कहा, "भारत की स्वतंत्रता के लिए हम हर संभव सहायता देने के लिए प्रस्तुत है।"
जब नेताजी इस बात से संतुष्ट हो गए कि कार्य के लिए भूमि तैयार हो गयी थी तब जापान की जनता और शेष संसार को उनके नाटकीय ढंग से जापान पहुंचने की बात प्रथम बार बताई गयी।
पूर्वी एशिया में रहने वाले भारतीयों को हार्दिक प्रसन्नता हुई। संपूर्ण स्थिति एकदम परिवर्तित हो गयी। पूर्वी एशिया में सुभाष की उपस्थिति की घोषणा ने वातवरण में विद्युत प्रभाव उत्पन्न किया। भारतीयों ने अनुभव किया कि अविश्वसनीय घटना घट गयी। अब एक गतिशील क्रांतिकारी स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभालेगा और भारत में अंग्रेजी किले के पूर्वी फाटक को तोड़ेगा। इससे भारतीयों को बड़ी प्रसन्नता हुई।
टोकियो रेडियो से पूर्वी एशिया स्थित भारतीयों को संबोधित करते हुए एक प्रसारण में नेताजी ने कहा, “भारत के अंदर आधुनिक शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजी सेना से निबटने हेतु देशवासियों लिए सशस्त्र क्रांति संगठित करना संभव नहीं है। अत: इस कार्य का भार देश के बाहर रहने वाले भारतीयों के कंधों पर है--विशेषकर उन भारतीयों के कंधों पर जो पूर्व एशिया में निवास करते हैं। समय आ गया है, जब प्रत्येक देशभक्त भारतवासी को युद्ध स्थल की ओर बढ़ना है। जब स्वतंत्रता प्रेमी भारतीयों का खून बहेगा तो भारत स्वतंत्रता प्राप्त करेगा।"
टोकियो से एक बाद के प्रसारण में नेताजी ने अपने उन देशवासियों की ओर संकेत करते हुए, जिन्होंने अंग्रेजी संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त की थी और जो अंग्रेजी प्रचार से प्रभावित थे कहा, "मैं अपने उन देशवासियों से कहंगा कि वे मुझ में विश्वास रखें क्योंकि शक्तिशाली अंग्रेजी सरकार जिसने मुझको जीवन भर कष्ट दिया है और मुझे 11 बार बंदी बनाया है मुझे अपने निश्चय से विचलित नहीं कर सकी है। संसार की कोई शक्ति ऐसा नहीं कर सकती। और जब चतुर, चालाक साधन संपन्न अंग्रेज राजनीतिज्ञ मुझे बहका एवं भ्रष्ट न कर सके तो अन्य ऐसा करने की आशा कैसे कर सकते हैं। मैं भारत की सीमा से अब दूर नहीं हूं। जनवरी 1941 से कोई भी शक्ति मेरी गति को नहीं रोक सकी है और कोई भी शक्ति मुझे राष्ट्र के लिए लड़ाई के इस अंतिम चरण में एक बार फिर सम्मिलित होने के लिए भारत की सीमा पार करने से नहीं रोक सकती।"
नेताजी सुभाष चंद्र बोस रासबिहारी बोस के साथ टोकियो से सामबवांग (सिंगापुर) हवाई अड्डे पर 2 जुलाई 1943 को प्रात: उतरे और वहां से मोटर द्वारा सिंगापुर के मुख्य हवाई अड़े गए जहां भारतीय स्वतंत्रता सेना, आई.एन.ए. के अधिकारी एवं उत्साही व्यक्तियों की एक बड़ी भीड़ उनके स्वागत के लिए प्रस्तुत थी।
श्वेत रंग की रेशम का सूट पहने और अपने बायें हाथ में फैल्ट हैट पकड़े नेताजी पूर्वी एशिया में आई.एन.ए. का सम्मानसूचक अभिवादन स्वीकार करने के लिए सिंह गति से चले। जब नेताजी ने उन्हें 'साथियो और दोस्तो' कहकर संबोधित किया तो समस्त सेना में आनंद ही लहर दौड़ गयी। यह आनंद की लहर उस समय और अधिक तीव्र हुई जब नेताजी ने कहा कि वे भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से तलवार हाथ में लेकर युद्ध करने के पुराने स्वप्न को साकार करेंगे। आई.एन.ए.
शिविर में उस समय हलचल फैल गई जब सैनिक सम्मान गारद के पश्चात् अपनी बैरकों को लौटे और वहां उन्होंने बड़े उत्साह के साथ नेताजी के सूक्ष्म संदेश का सार सुनाया। मुक्ति सेना के साथ प्रथम संपर्क के बाद से ही पूर्वी एशिया में आई.एन.ए. के अफसरों और सैनिकों ने निरंतर उनकी प्रशंसा की एवं उनमें पूर्ण निष्ठा व्यक्त की।
दो दिन पश्चात् 4 जुलाई 1943 को कैथे सिनेमा हाल में पूर्व एशिया के पांच हजार भारतीयों के समक्ष नेताजी ने पुराने क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से पूर्व एशिया में चलाये जा रहे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का विधिवत् नेतृत्व ग्रहण किया। अपने उत्कृष्ट एवं विनीत भाषण के साथ रासबिहारी ने युवक एवं क्रियाशील सुभाष के हाथों में नेतृत्व सौंपा। इस नेतृत्व को ग्रहण करते हुए नेताजी ने कहा, "अपनी फौजों का कुशलता से संचालन करने के लिए मैं स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार बनाने का विचार रखता हूं। इस अस्थायी सरकार का कर्तव्य होगा कि वह भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई को सफलता प्राप्ति तक लड़ती रहे।
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