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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....


10. संकट और आज़ाद हिंद फौज का विघटन

जून 1942 में हुए बैंकाक सम्मेलन के बाद छह मास में ही धीरे-धीरे सर्वत्र स्थिति बिगड़ने लगी। इवाकुरो किकान (संपर्क कार्यालय) टोकियो एवं बैंकाक सम्मेलन में पारित प्रस्तावों के अनुसार जापान सरकार से अधिकृत घोषणा प्राप्त करने में असफल रहा। अत: पारस्परिक अविश्वास एवं गलत धारणायें बढ़ने लगीं। भारतीयों की ओर से बार-बार किकान से अधिकृत घोषणा प्राप्त करने का निवेदन किया जाता था परंतु प्रत्येक बार विफलता ही मिलती थी। जापान की ओर से जो सामग्री दी जाती थी, आई.एन.ए. उसकी मात्रा एवं गुणों से असंतुष्ट थी। बर्मा में जापानियों का दृष्टिकोण लीग संगठन के प्रति घृणापूर्ण था। बर्मा से अंग्रेजों के निष्कासन के पश्चात जापानी सेना ने विस्थापित भारतीयों की संपत्ति के साथ शत्रु संपत्ति की तरह व्यवहार किया। यह उस समझौते के विपरीत था जो भारतीयों
की संपत्ति के संबंध में पहले हुआ था। रंगून में भारतीयों और जापानियों के बीच एक दुखद सम्मेलन में एक जापानी ने कहा, 'हम तुमको कठपुतली देखना नहीं चाहते। यदि हम ऐसा करें भी तो कठपुतली होने में क्या हानि है? कठपुतली क्यों बुरी है?' जिस व्यक्ति ने यह कहा था वह एक छोटा अधिकारी था परंतु जो कुछ उसने कहा था उससे अन्य गैर-जिम्मेदार जापानियों के मन की बात भी प्रकट होती थी।

टोकियो द्वारा घोषणा करने की अनिच्छा के संबंध में कर्नल इवाकुरो और अन्य दूसरों ने सफाई देने का प्रयत्न किया परंतु इनसे कार्य परिषद के अध्यक्ष रासबिहारी बोस की स्थिति कमजोर हो गई। जापानियों द्वारा आई.एन.ए. एवं लीग को सहायता देने के पीछे वास्तविक उद्देश्य अब परिषद के अन्य सदस्यों एवं सर्वसाधारण को स्पष्ट होने लगे। परंतु रासबिहारी के हृदय में भारत की स्वतंत्रता की तीव्र इच्छा की ज्योति पहले की तरह जलती रही। एक भारतीय के रूप में उनकी अमिट देशभक्ति के संबंध में किसी को लेषमात्र भी संदेह नहीं था परंतु कुछ भारतीयों के मन में यह संदेह अवश्य था कि जापान में 30 वर्ष के प्रवास, वृद्ध आयु, कमजोर स्वास्थ्य एवं मृदु व्यवहारी होने के कारण जापानियों के गैर-समझौता पूर्ण रुख से उत्पन्न खिंचाव को क्या वे सहन कर पायेंगे? कार्य परिषद जापानियों से विमुख होती जा रही थी। दूसरे सदस्य अपने अध्यक्ष से दूर होते जा रहे थे। जनरल मोहनसिंह एवं रासबिहारी
बोस जापानियों से निरंतर दूर होते जा रहे थे। समस्त परिषद और आई.एन.ए. के जनरल मोहन सिंह (जी.ओ.सी.) टोकियो द्वारा औपचारिक घोषणा न करने के कारण एवं आई.एन.ए. के साथ र्दुव्यवहार से जापानियों के विरुद्ध हो गये। दोनों अब टकराव के पथ पर थे। वास्तविक टकराव अब दूर न था। अध्यक्ष और राघवन के अतिरिक्त कार्य परिषद के अन्य सदस्यों ने परिषद से त्याग-पत्र दे दिया। परिषद् की सहमति बिना प्राप्त किए ही जनरल मोहनसिंह की इच्छा के विरुद्ध जापानी आइ.एन.ए. को मनमानी आज्ञा देने लगे और उसके कार्यों में हस्तक्षेप करने लगे। इससे एक अत्यंत संकट की स्थिति आ गई और जापानियों ने जनरल मोहनसिंह को सिंगापुर में 29 दिसंबर,1942 को बंदी बना लिया और उन्हें एक समीपस्थ टापू में भेज दिया। यहां वे दिसंबर 1943 तक रहे। तत्पश्चात् उन्हें सुमात्रा भेजा गया जहां वे युद्ध समाप्ति तक रहे। अंग्रेज उन्हें सिंगापुर ले आए और अंत में नवंबर 1945 में दिल्ली लाकर उन्हें बिना शर्त मई 1946 में मुक्त कर दिया।

अपने बंदी होने से पूर्व ही जनरल मोहनसिंह ने आई.एन.ए. के सैनिकों को बता दिया था कि यदि वे उनसे पृथक कर दिए जाएं तो आई.एन.ए. स्वयं समात्त हो जायेगी। 29 दिसंबर 1942 को उनके बंदी हो जाने के साथ प्रथम आई.एन.ए. भी समाप्त हो गई। बचे हुए एक मात्र सदस्य, राघवन ने भी कार्य परिषद् से त्याग-पत्र दे दिया। अब रासबिहारी बोस अकेले रह गए।

छह मास से निरंतर बढ़ते हुए संदेह, अविश्वास, धोखाधड़ी, अकुशलता तथा जापानियों की निष्ठा में अविश्वास का अंत प्रथम आई.एन.ए. के विघटन में हुआ। इस संकट के पश्चात् कुछ समय तक अव्यवस्था एवं अस्तव्यस्तता फैली रही।

नागरिकों की संस्था की ओर से राघवन के उत्तराधिकारी डा. लक्षुमिया और सेना की ओर से ले. कर्नल जे. के. भोंसले की सहायता से रासबिहारी बोस पुनः लीग और आई.एन.ए. के निर्माण में लग गए।

रासबिहारी बोस को स्पष्ट प्रतीत हुआ कि कुछ ही समय में सुभाष चंद्र बोस पूर्वी एशिया पहुंचकर आंदोलन और आई.एन.ए. का नेतृत्व करेंगे। अत: उन्होंने
आई.एन.ए. और लीग को सुभाष को सौंपकर अपनी चिंता से मुक्त होने का निश्चय किया। उन्होंने मार्च 1943 में लीग के मुख्यावास को बैंकाक से सिंगापुर स्थानांतरित किया। पूर्व संकटों के आघात ने नागरिकों तथा सैनिकों को कुछ समय के लिए शक्तिहीन बना दिया था। उन्होंने आई.एन.ए. एवं लीग की स्थिति को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से रात-दिन कार्य किया।

लै.कर्नल भोंसले सैनिक ब्यूरो के निदेशक नियुक्त हुए तथा ले. कर्नल एम.जैड. कियानी सेना के कमांडर नियुक्त किए गए।

रासबिहारी बोस ने 26 अप्रैल से 30 अप्रैल 1943 तक सिंगापुर में पूर्वी एशिया में निवास करनेवाले भारतीयों का एक और सम्मेलन किया जिसमें निम्नलिखित प्रस्ताव पारित हुए : “आज़ाद हिंद फौज भारतीय स्वतंत्रता लीग की सेना है और आई.एन.ए. के सब अधिकारी एवं सैनिक और लीग के सब सदस्य कुल मिलाकर लीग के प्रति उत्तरदायी हैं।" और "तुरंत भारतीय संविधान में इस प्रकार परिवर्तन किया जाए जिससे कि वह अपने युद्ध संबंधी कार्यों को शीघ्र एवं उत्तमता से संपादित कर सके।" इस संशोधित संविधान से रासबिहारी बोस को लगभग अधिनायकीय अधिकार मिल गये।

इस बात से संतुष्ट होने के पश्चात् कि लीग और आई.एन.ए. संकट के बाद भी जीवित हैं तथा उनमें इस सीमा तक पुन: जीवन आ गया है कि वे आत्मविश्वास के साथ किसी भी स्थिति का सामना कर सकती है, रासबिहारी बोस जून 1943 में टोकियो के लिए रवाना हुए परंतु साधारण जनता को अब भी लीग और आई.एन.ए. की अंत:शक्ति में संदेह था और अब उनकी आशायें बैंकाक सम्मेलन में सुभाष चंद्र बोस को पूर्वी एशिया में आने के लिए दिए गए निमंत्रण पर एवं उनके आने पर आंदोलन का नेतृत्व संभालने पर लगी हुई थी।

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