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आजाद हिन्द फौज की कहानी

एस. ए. अय्यर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :97
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4594
आईएसबीएन :81-237-0256-4

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आजाद हिन्द फौज की रोचक कहानी....


8. प्रथम आज़ाद हिंद फ़ौज की स्थापना

इसी समय 10 दिसंबर को ज्ञानी प्रीतमसिह ने मेजर फ्यूजी वारा एवं अन्य जापानी सैनिकों के साथ बैंकाक के लिए हवाई जहाज द्वारा प्रस्थान किया और थाई-मलाया सीमा पार की तथा भारतीय सैनिक अधिकारियों से प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित किया। ज्ञानी प्रीतमसिंह और कप्तान मोहनसिंह के बीच जित्रा के समीप जंगल में महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक भेंट हुई। बिना अतिशयोक्ति के यह कहा जा सकता है कि प्रथम आज़ाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) के विचार का जन्म इसी महत्वपूर्ण दिन को हुआ। कप्तान मोहनसिंह जित्रा में अपनी रेजिमेंट के वरिष्ठतम अधिकारी थे। वे पहले से ही आजाद हिंद फौज बनाने की बात भारत से विदेशी शासकों को निकालने के लिए सोच रहे थे। उन्होंने जापानी फौजों को ले जाती हुई कारों के साथ एक कार के अग्रभाग पर राष्टीय तिरंगा लहराते देखा। उन्होंने जापानियों तक जाने का निश्चय किया। जब कप्तान मोहनसिंह बाबा ज्ञानीसिंह से मिले तो उन्होंने मोहनसिंह को भारतीय स्वतंत्रता लीग के उद्देश्यों को समझाया और उनसे लीग में सम्मिलित होकर आजाद हिंद फौज बनाने का आग्रह किया। दीर्घ वार्तालाप के पश्चात जिसमें मेजर फ्यूजी वारा भी सम्मिलित थे, कप्तान मोहनसिंह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सम्मिलित होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए सहमत हो गये। उन्होंने और उनके 54 साथियों ने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन समर्पित करने का व्रत लिया। आज़ाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) सांकेतिक रूप से जित्रा में बनी और कप्तान मोहन सिंह इस मुक्ति फौज के जनरल आफिसर कमांडिग (जी.ओ.सी.) नियुक्त हुए। अंग्रेजों की भारतीय सेना के इतिहास में प्रथम बार उसी फौज के सैनिकों द्वारा लगाये गये आजाद हिंदुस्तान जिंदाबाद और आजाद हिंद फौज जिंदाबाद के गगनभेदी नारों से आकाश गूंज उठा। अब आगे बहुत से अधिकारी और सैनिक आई.एन.ए. में कप्तान मोहनसिंह के नेतृत्व में सम्मिलित हो गये। जापानी फौज अंग्रेजी सेना को सिंगापुर की ओर भगा रही थी और भारतीय सेना के अधिकारी और जवान पीछे बिना नेता के छूटे जा रहे थे। उन पीछे छूटे हुए सैनिकों को जापानी सेना बंदी कर लेती थी।

भारतीय स्वतंत्रता लीग की एक शाखा क्वालालंपुर में, जो संयुक्त मलाया राज्य की राजधानी थी, 16 जनवरी 1942 को बनायी गयी। इस समय वहां समस्त सेलेंकर
राज के भारतीय बहुत बड़ी संख्या में उपस्थित थे। ज्ञानी प्रीतमसिंह और मेजर फ्यूजी वारा ने एकत्रित जनसमूह के समक्ष भाषण दिया और श्रोताओं को विश्वास दिलाया कि जापानी सरकार भारतीयों को उनके देश को स्वतंत्र कराने में हर संभव सहायता देगी।

कप्तान मोहनसिंह ने बाद में पांच हजार भारतीय युद्व बंदियों के बीच क्वालालंपुर के मुख्य शिविर में भाषण दिया और उन्हें बताया कि आई.एन.ए. का उद्देश्य भारत से अंग्रेजों को निकालना था और जापान सरकार ने इस उद्देश्य के लिए उन्हें सहायता देने का वचन दिया था। मोहनसिंह की अपील का तत्काल प्रभाव पड़ा और पांच हजार युद्ध बंदियों में से चार हजार सैनिकों ने आई.एन.ए. अपना ली। जनवरी के अंत तक पूर्ण मलाया में भारतीय स्वतंत्रता लीग का जाल फैल गया।

15 फरवरी 1942 को जापानियों ने सिंगापुर पर विजय पायी। उसी रात को भारतीय सैनिकों को आज्ञा दी गयी कि अगले दिन उन्हें प्रात: काल कैरर पार्क (सिंगापुर) में एकत्र होना है। युद्व बंदी पार्क में 16 फरवरी को 2 बजे अपराह में एकत्र हुए। मलाया में अंग्रेजी सैन्य मुख्यालय के स्टाफ आफिसर ले.कर्नल हंट, मेंजर फ्यूजी वारा, कप्तान मोहनसिंह, भारतीय स्वतंत्रता लीग के अन्य मुख्य सदस्य और कुछ जापानी तथा भारतीय अधिकारी भारतीय सेना के सामने उपस्थित हुए। ले. कर्नल हंट ने भारतीय युद्व बंदियों को संबोधित करते हुए कहा, “मै अंग्रेजी सरकार की ओर से तुम्हें जापान सरकार को सौंपता हूं। अब तुम जापान सरकार की आज्ञा का पालन उसी प्रकार करोगे जैसे अब तक हमारी आज्ञा का पालन करते थे।" तत्पश्चात मेजर फ्यूजी वारा माइक पर आये और बोले-"मै जापान सरकार की ओर से तुम्हें अपनी सेना में ग्रहण करता हूं और कप्तान मोहनसिंह जी.ओ.सी. को सौंपता हूं।" उन्होंने आगे कहा, “क्योंकि अंग्रेजी साम्राज्य का अब अंत होने वाला है इसलिए भारतवासियों को अब स्वतंत्र होने का अनोखा अवसर है। इस उपयुक्त अवसर पर अपने देश की स्वतंत्रता हेतु युद्ध करो। यघपि भारतवासी अंग्रेजी नागरिक हैं और इस प्रकार वैधानिक रूप से हमारे शत्रु हैं फिर भी जापान प्रत्येक प्रकार से उनकी सहायता करने को प्रस्तुत है। क्योंकि हम जानते है कि भारतवासी स्वेच्छा से अंग्रेजों के अधीन नहीं है। जापानी सेना तुमको शत्रु नहीं मानेगी। यदि तुम अंग्रेजी राष्टीयता का परित्याग कर दोगे तो वह तुम्हें मित्र मानने को तैयार है।"

कप्तान मोहनसिंह ने हिंदुस्तानी में बोलते हुए कहा, “अब पूर्व में अंग्रेजी अत्याचार के दिन समाप्त हो रहे हैं और उनके घृणित शासन का अब अंत होना ही चाहिए। जापानी सेना ने उन्हें मलाया और सिंगापुर से भगा दिया है और अब वे बर्मा में शीघ्रता से पीछे हट रहे है। अब भारतवर्ष स्वतंत्रता प्राप्ति के कगार पर खड़ा है।

प्रत्येक भारतवासी का यह कर्तव्य है कि इन राक्षसों को, जो भारतवासियों का खून इतने दशकों से पी रहे हैं, देश से निकाले। जापानियों ने हमें सब प्रकार की सहायता देने का वचन दिया है। अब हमारी यह जिम्मेदारी है कि हम अपने आपको संगठित करें। इसी उद्देश्य को लेकर हमने पूर्वी एशिया में भारतीय सैनिकों और नागरिकों से आई.एन.ए. का निर्माण किया है। मैं तुम सबसे इस सेना में सम्मिलित होने का निवेदन करता हूं। “सैनिकों ने कप्तान मोहनसिंह के भाषण के उत्तर में 'इंकलाब जिंदाबाद' और आज़ाद हिंदुस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाकर उत्तर दिया और आई.एन.ए. में सम्मिलित होने की सहमति देते हुए अपने हाथ उठाये। इस समर्पण समारोह के तुरंत बाद मोहन सिंह ने युद्ध बंदियों में प्रचार भाषणों का आयोजन किया और उनमें से तीस हजार से अधिक ने आई.एन.ए में सम्मिलित होने की इच्छा प्रकट की। परंतु इस मुक्ति सेना को संगठित करने में कप्तान मोहनसिंह को बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जब कि सामान्य सैनिक स्वेच्छा से आई.एन.ए. में सम्मिलित होने के इच्छुक थे। कुछ उनके वरिष्ठ अधिकारी आई.एन.ए. में सम्मिलित होने के इच्छुक थे। कुछ उनके वरिष्ठ अधिकारी आई.एन.ए. के निर्माण के एकदम विरुद्ध थे और उन्हें इसमें सम्मिलित न होने का परामर्श दे रहे थे। युद्व बंदियों के साथ जापानियों का व्यहार पूर्णरूपेण संतोषजक नहीं था। राशन, कपड़े, और दवाइयां बहत कम दी जा रही थी। कप्तान मोहनसिंह और भारतीय लीग को युद्व बंदियों की आवश्यकताओं को पूरा करने में कठिनाई हो रही थी। जापानी भी अब युद्ध बंदियों को मनमानी आज्ञायें देने लगे थे। कुछ शरारती तत्वों ने हिंदू मुस्लिम विवाद उत्पन्न करने का प्रयत्न किया था। अंग्रेजों के छिपे हुए पिठुओं ने आई.एन.ए. की प्रगति में बाधा डालने का प्रयास किया। कुछ वी.सी.ओ. (वाइसराय कमीशंड आफिसर) एवं कुछ के.सी.ओ. (राजा के कमीशन प्राप्त आफिसर) का कप्तान मोहनसिंह से प्रत्यक्ष मतभेद था। उनका विश्वास था कि जापानी आई.एन.ए. का निर्माण अपने स्वार्थ के लिए कर रहे थे। कुछ अन्य ऐसे भी थे जो कप्तान मोहनसिंह के शासन में कार्य करना नहीं चाहते थे क्योंकि अंग्रेजी भारतीय सेना में उनका स्थान कहीं ऊंचा था। फिर भी मोहनसिंह ने इन कठिनाइयों पर काबू पाने का प्रयास किया और वे अपने ईमानदार विरोधियों को अपने उद्देश्य की सत्यता के प्रति आश्वस्त कर सके।

इन्होंने अपना मुख्यवास सिंगापुर में बनाया जहां ले. कर्नल एन.एस. गिल युद्धबंदी मुख्यालय के अधिकारी, ले. कर्नल जे.के. भोंसले एडजूडेंट और क्वाटर मास्टर जनरल तथा लै. कर्नल ए.सी. चटर्जी चिकित्सा सेवा निदेशक उनके सहायक थे।

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