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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


क्षण-भर सोचकर सुदामा ने चौपाल में ही टिकने का निर्णय किया। वे व्यक्ति उन्हें रास्ते का निर्देश कर आगे बढ़ गये।

चौपाल की ओर जाते हुए सुदामा स्वयं अपने आपसे प्रश्न कर बैठे : निर्जन मन्दिर में न जाकर वे चौपाल में क्यों जा रहे हैं? वे तो स्वयं को एकान्तप्रिय मानते हैं, फिर चौपाल की भीड़भाड़...पर वे स्वयं को कोई उत्तर नहीं दे पाये। जाने क्यों...उनकी गांठ में धन भी तो नहीं है कि एकान्त में लुटने का भय हो। चौपाल में लोग होंगे, शोर होगा, असुविधाएं होंगी...पर सुदामा कुछ बदल गये हैं क्या? वह कृष्ण का प्रभाव है क्या? उन्हें एकान्त से अधिक भीड़ पसन्द आने लगी है...।

वे चौपाल के निकट आये तो अनेक प्रकार के स्वर उनके कानों में पड़ने लगे। कई लोग एक साथ बोल रहे थे। स्वाभाविक ही था। यहां कोई आश्रम अथवा पाठशाला का अनुशासन तो था नहीं। सब लोग खले मन से अपनी बात कह रहे थे।
पर सुदामा के प्रकाश-सीमा में आते ही वे सारे कण्ठ जैसे थम गये। एक पूरे समूह की दृष्टि उन्हें परख रही थी।

"कौन हो?" अन्ततः एक व्यक्ति ने पूछा। उसके स्वर का विरोध पर्याप्त स्पष्ट था।

"यात्री हूं। रात-भर टिकना है।"

"तो यहां क्या करने आये हो?" स्वर अपमानजनक हो चला था।

सुदामा का मन हआ, पलटकर तत्काल वहां से चल दें। उनके लिए वही अधिक स्वाभाविक था। पर जाने क्या हुआ कि उनके पांव कुछ अधिक दृढ़ता से जम गये और स्वर कुछ ऊंचा उठ गया, "गाँव में दस-पांच चौपालें तो होती नहीं।"

सुदामा को लगा, अपना यह रूप स्वयं उनके लिए कुछ नया था।

उस व्यक्ति ने कुछ अचकचाकर सुदामा को देखा। लगा कि कोई तीखी बात उसके मस्तिष्क में आई है। पर फिर जैसे उसे वह पी गया। कुछ धीमे स्वर में बोला, "उस किनारे पड़ रहो।"

सुदामा के मन में आया, कहें, "तुम्हारे बीच आ पड़ने से तो मैं वैसे ही रहा।" पर

उन्होंने कहा नहीं। सुदामा का स्वभाव इतना उग्र नहीं था। वैसे भी व्यर्थ किसी का दिल दुखाने से क्या लाभ!

"अच्छा।"

सुदामा ने अपनी पोटली एक किनारे रख दी और लोटा-डोरी लेकर कुएं की ओर चले गये।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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