पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
तेरह
कृष्ण दृष्टि से ओझल हो गये तो सुदामा जैसे आपे में आये।
कृष्ण ने कहा था कि उनके जीवन में सुदामा के साथ बिताया गया यह समय शीतल विश्राम का समय था; पर सुदामा के लिए यह समय तो जैसे किसी और लोक में बिताया गया समय था। जैसे कोई सुहाना सपना देखा हो, जिसमें व्यक्ति की सारी मनोकामनाएं पूरी हो जायें।
पर अब वह स्वप्न भंग हो गया था। सुदामा अब सुदामा मात्र थे, पहले जैसे। एक निर्धन, दार्शनिक ब्राह्मण, जिसे अपने पगों से तीन दिनों का मार्ग नापना था और तब जाकर देखना था कि उनकी पत्नी और बच्चों पर इन पिछले सात-आठ दिनों में क्या बीता है। जिस प्रकार सुशीला ने उन्हें घर से विदा किया था, उससे यह तो नहीं लगता था कि वह उनकी अनुपस्थिति में अपने और बच्चों के लिए अन्न भी नहीं जुटा पायेगी। इसलिए यह आशंका तो व्यर्थ थी...पर फिर भी कुछ कठिनाइयां हुई ही होंगी...और उनका वह ग्रन्थ। उनका एक-एक पत्र उनकी बाट जोह रहा होगा।
वे कृष्ण की बात मान लेते और उसके रथ पर अपने गाँव-सुदामापुरी, हां सुदामापुरी-जा पहुंचते...इस नाम से सुदामा को कैसी तो फुरफुरी होने लगती थी। बुद्धिजीवी यश का कितना भूखा होता है।...और इससे बड़ा यश और क्या हो सकता है कि उनके ग्राम का नाम, उन्हीं के नाम पर रखा जाये। अपने-आप ही सुदामा प्रसिद्ध हो जायेंगे।
उन्होंने अपने सिर को झटका-व्यर्थ की बातें सोचने का क्या लाभ! चुहल के लिए तो यह अच्छी बात है। उद्धव के कहने के अनुसार, प्रत्येक बुद्धिजीवी यह कल्पना कर ले कि उसके नगर या गाँव का नाम, उसी के नाम पर रखा जायेगा। ...पता नहीं उद्धव की बात से कुछ होगा या नहीं, पर कृष्ण की बात मान लेते तो उससे कुछ होता-न-होता, वे शीघ्र घर जा पहुंचते...शीघ्र घर पहुंचते, सुख और आराम से...पर तब चलने का कर्म नहीं होता...'तो तुम्हारा कर्म-सिद्धान्त क्या कहता कृष्ण ?' उन्होंने अपनी कल्पना में कृष्ण से चुहल की।...और फिर वे सोचने लगे कि कृष्ण क्या कहता? हां, कृष्ण कहता, 'तुम्हें चलना पड़ा तो तुम्हें लगा कि तुम्हें चलने का कष्ट हुआ है, पर प्रकृति कर्म का फल देती है। तुम चले, तुम्हारे शरीर ने परिश्रम किया तो तुम्हारा स्वास्थ्य अच्छा रहा। तुम न चले होते, बिस्तर पर पड़े होते तो मोटे थुलथुल हो गये होते। रोगों का घर। श्रम शरीर का धर्म है। अतः श्रम प्राकृतिक सत्य है। श्रम करने पर शरीर स्वस्थ रहेगा। मस्तिष्क से कार्य करने पर मस्तिष्क विकसित होगा। जोखिम झेलने पर साहस का विकास होगा। सुरक्षित जीवन व्यक्ति को कोमल कर देगा।'
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