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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


सुदामा जैसे कुछ स्वस्थ हो आये। उनका आत्मविश्वास भी जाग उठा था। कृष्ण के उस व्यापक संसार में, जो द्वारका से इन्द्रप्रस्थ, हस्तिनापुर कांपिल्य और मथुरा ही नहीं, वाराणसी, गिरिव्रज और प्राग्ज्योतिषपुर तक फैला हुआ था...सुदामा का अंश बहुत छोटा था। फिर भी कृष्ण ने बहुत दिया।

"अच्छा मित्र!" सुदामा पहली बार कृष्ण से कुछ बड़े होकर बोले, "तुम सुभद्रा की सुध लो।"

"सुध तो मुझे उन सबकी लेनी है।" कृष्ण बोले, "कृष्णा मेरे लिए सुभद्रा से कम नहीं है। पर वह न मेरे साथ द्वारका आयेगी, न धृष्टद्युम्न के साथ कांपिल्य जायेगी। वह अपने पतियों के साथ ही रहेगी। सोचता हूं, सुभद्रा और अभिमन्यु को अपने साथ ले आऊं। तेरह वर्षों के इस वनवास और अज्ञातवास में अभिमन्यु का शिक्षण नहीं हो पायेगा और बच्चों के साथ पाण्डवों को भी कठिनाई होगी।"

"ठीक है। तुम उन्हें देखो।" सुदामा बोले, "मैं चलता हूं।"

"इस समय परिस्थितियां कुछ ऐसी हैं कि मैं तुम्हें छोड़ने के लिए सुदामापुरी नहीं जा सकता।"


"सुदामापुरी?" सुदामा मन-ही-मन हंसे..."कौन पुकारेगा उसे सुदामापुरी?"

"पर मेरी बात मानो," कृष्ण बोले, "दारुक को ले जाओ। वह तुम्हें छोड़ आयेगा।"

"क्या आवश्यकता है।" सुदामा स्पष्ट आत्मबल से बोले, "मैं तो पैदल चलने का अभ्यस्त हूं। आज तक जितनी यात्राएं की हैं, पैदल ही की हैं। और फिर मुझे तो जाना भी," सुदामा हिचके, वे अपने गाँव को सुदामापुरी नहीं पुकार सकते..."अपने गाँव तक ही है। तुम्हें कहां तक जाना है...इन्द्रप्रस्थ या हस्तिनापुर? दारुक की तुम्हें आवश्यकता होगी।"

स्पष्ट लग रहा था कि कृष्ण अपनी समग्र सम्पूर्णता में सुदामा के सामने नहीं थे; या वे वहां भी थे और शायद इन्द्रप्रस्थ में भी थे।

सत्यभामा और जाम्बवती, सुदामा को कक्ष में ही प्रणाम कर गयी थीं। रुक्मिणी उन्हें विदा करने के लिए बाहरी द्वार तक आयीं, किन्तु कृष्ण नहीं माने। वे स्वयं रथ हांकते हुए सुदामा को द्वारका के द्वार तक लाये।

"अच्छा, अब तुम चलो।" सुदामा रथ से उतरते हुए बोले।

"अच्छा मित्र!" कृष्ण भी रथ से उतर आये, "तुम्हारे साथ बिताया गया यह समय मेरे जीवन में धूप में भाग-दौड़ करते हुए, मार्ग में किसी वृक्ष के नीचे छाया में सुखद विश्राम के समान था। पर शायद इस बार इतना ही सम्भव था।"

कृष्ण ने सुदामा को आलिंगन में बांध लिया। कुछ क्षणों तक वे दोनों वैसे ही खड़े रहे, जैसे संसार की सारी गतियां थम गयी हों।...और फिर वे अलग हुए। कृष्ण रथारूढ़ हुए। स्नेह और विषाद की एक मिश्रित दृष्टि सुदामा पर डाली और घोड़े मोड़ लिये।


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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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