लोगों की राय

पौराणिक >> अभिज्ञान

अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

10 पाठक हैं

कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


सुदामा आपे में आये। वे यह क्या कर रहे हैं। वे क्या कृष्ण की चिन्तन-पद्धति का विकास कर रहे हैं? उनका चिन्तन वैसा ही हो गया है। कृष्ण ने उन्हें सम्मोहित कर दिया है क्या? सम्मोहित किया हो या न किया हो; पर बात तो ठीक है। यह कर्म-सिद्धान्त तो चिन्तन-पद्धति ही नहीं, सीधा-सादा तर्कशास्त्र है। एक विज्ञान है। प्रकृति की इस व्यवस्था के बीच व्यक्ति जो कुछ भी करेगा, उसका एक स्पष्ट और निश्चित परिणाम होगा। वह परिणाम व्यक्ति को अच्छा लगे या बुरा-उसके दो पक्ष होंगे ही। कुछ लाभ, कुछ हानियां। लाभ ही लाभ दिखने वाले परिणाम में भी कुछ हानियां होंगी और केवल हानि दिखने वाले परिणाम में भी लाभ होंगे। यह तो व्यक्ति अथवा समाज के अपने चिन्तन पर निर्भर करता है कि उसमें कितना लाभ और कितनी हानि देखता है।...कृष्ण कह रहा था कि अधिक स्वतन्त्रता, समृद्धि और शक्ति पाकर यादवों में आलस्य और विलास बढ़ा है, तृष्णा बढ़ी है, वैर और द्वेष बढ़ा है। परिणामतः उनका तेज कम हुआ है-न्याय-अन्याय का विचार, धर्म-अधर्म का चिन्तन कम हुआ है...और इन्हीं कारणों से वे अन्ततः नष्ट हो जायेंगे...और इसके विपरीत कंस के दमन और अत्याचार, जरासन्ध के अधर्म और पाप को सह-सहकर यादव जातियों में एकता बढ़ी, उनकी शक्ति बढ़ी, उनमें ओज और तेज आया और उन लोगों को कृष्ण जैसा नेता मिला...विचित्र गति है यह तो और विचित्र चिन्तन।

सुदामा यदि इस चिन्तन को कौरवों और पाण्डवों पर घटाएं तो? कौरवों को भोग के लिए हस्तिनापुर का वैभव मिलता रहा और वे अहंकारी, दुष्ट और मित्रविहीन हो गये। पाण्डवों को बार-बार पीड़ित होकर वंचित रहना पड़ा, इसलिए वे बली और सक्षम हुए। उनके मित्रों की संख्या बढ़ी। उन्हें कृष्ण जैसा मित्र मिला।...पर क्या यह तर्क- पद्धति सदामा पर भी लागू हो सकती है?...वे रुके...अपने विषय में क्या सोचें...उन्हें धन-वैभव नहीं मिला, उन्हें निर्धनता में जीना पड़ा...तो उन्हें क्या मिला? यदि कृष्ण की तर्क-पद्धति ठीक है, तो उन्हें भी तो इस निर्धनता का कोई लाभ होना चाहिए...हानियां तो वे समझते हैं, लाभ क्या होगा?...बड़ी दूर तक सुदामा सोचते चले गये; किन्तु उन्हें उसका कोई लाभ दिखाई नहीं दिया। तो क्या यह तर्क-पद्धति सार्वभौमिक नहीं है या मेरा ही मस्तिष्क इस लाभ को खोज निकालने में असमर्थ है?... नहीं, लाभ तो इसमें भी हैं। मुझ में व्यसन नहीं हैं। मेरे बच्चे आलस्य और शोषण के मार्ग पर नहीं चलेंगे। हमारे पारिवारिक सम्बन्ध अधिक सुखद और सन्तोषजनक हैं!...कृष्ण के पास सब कुछ है, सब सुख-सुविधाएं, सामर्थ्य...पर कल कृष्ण के बच्चों को अपने पिता से शिकायतें हो सकती हैं क्या सुदामा के बच्चों..।

किस तुलना में पड़ गये वे। इस भूल-भुलैयां में वे कहीं बहककर यह सिद्ध न कर दें कि निर्धन होना ही सुखी होना है। नहीं, वंचित होना कभी सुखी होना नहीं हो सकता। कृष्ण भी यह नहीं कहता, क्योंकि कृष्ण यदि यही कहता तो वह यादवों और पाण्डवों को संघर्ष के लिए न उकसाता। वंचित रहना अन्याय को स्वीकार करना है : कृष्ण न अन्याय करने का समर्थक है, न अन्याय सहने का। वह तो केवल एक प्राकृतिक सत्य की बात कहता है-प्रत्येक क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है। वह प्रतिक्रिया अपने-आप में एक क्रिया बन जाती है और फिर उसकी प्रतिक्रिया होती है। इस क्रिया-प्रतिक्रिया श्रृंखला का दिशा-नियन्त्रण और नाप-जोख, हमारे वश में नहीं है। जो प्रतिक्रियाएं अनुकूल होती हैं, उन्हें हम लाभ और जो प्रतिकूल होती हैं, उन्हें हम हानि कहते हैं। इस सत्य को देख समझकर शायद कर्मों में आसक्ति नहीं रह जाती, जो कि कृष्ण के साथ हुआ है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book