पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"तुम सोच रहे होंगे कि तुम्हें आज जाना था और मैं प्रातः उठकर कहीं और चला गया," कृष्ण बोले, "वस्तुतः मेरा मन और तन, दोनों ही इस समय बड़ी भाग-दौड़ में हैं। एक ओर तुम्हारे साथ अधिक-से-अधिक समय व्यतीत करने का मोह नहीं छोड़ पा रहा हूं। तुमसे अभी जी भरकर बातें भी नहीं हुई हैं। इच्छा होती है कि गुरुकुल में बिताये काल के ही समान, हम दोनों किसी एकान्त वृक्ष की शाखाओं में छिपकर जा बैठें और फिर वन के फलों को चबाते हुए घण्टों तक अपनी बातें करते रहें; पर लगता है कि अब कभी वैसा निश्चिन्त जीवन नहीं मिलेगा।"
पहली बार सुदामा का ध्यान अपने संसार से निकलकर कृष्ण तक पहुंचा, "क्या बात है कृष्ण? इन्द्रप्रस्थ से...पर पाण्डवों का राज्य और उनका स्वातन्त्र्य तो उन्हें लौटा दिया गया था।"
"हां," कृष्ण मुस्कराये, "पर फिर कुछ चिन्ताजनक समाचार आये हैं।"
यह व्यक्ति चिन्ताजनक समाचारों की बात भी मुस्कराकर करता है।...सुदामा ने सोचा फिर पूछा, "क्या समाचार है?"
"पाण्डवों को इन्द्रप्रस्थ के मार्ग से ही लौटाकर धृतराष्ट्र ने उन्हें फिर से एक बार चौपड़ खेलने का आदेश दिया था।"
"फिर एक बार!' सुदामा चकित थे, "इतना कुछ हो जाने के बाद भी?"
"हां," कृष्ण बोले, "इतना कुछ हो जाने के बाद भी...इस बार एक-एक वस्तु दाँव पर नहीं बदी गयी। एक ही दाँव खेला गया कि जो पक्ष हार जाये, वह बारह वर्षों तक अपना राज्य छोड़कर वनवास करे। बारहवां वर्ष अज्ञातवास का हो। अज्ञातवास की अवधि में यदि स्वयं को गुप्त न रख सके तो पुनः बारह वर्षों के लिए वन में चला जाये।"
"तो?" सुदामा को लगा उनका स्वर कण्ठ में फंस रहा है, "युधिष्ठिर फिर हार गये क्या?"
"शकुनि के विरुद्ध खेलकर तो वैसे ही हारना होता है; और युधिष्ठिर तो स्वयं ही हारने पर तुले हुए हैं।" कृष्ण बोले, "पाण्डव वनवास के लिए चल पड़े होंगे।" कृष्ण रुके, "मुझे जाकर उनसे मिलना है। सुभद्रा और अभिमन्यु...।"
सुदामा कृष्ण की मनःस्थिति समझ रहे थे। कृष्ण के सामने इस समय कोई दार्शनिक समस्या नहीं, व्यावहारिक समस्या थी। पाण्डव उसके भाई थे। अर्जुन उसका भाई, बहनोई और मित्र था। स्वयं सुभद्रा और अभिमन्यु...।
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