पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"यदि एक व्यक्ति बिना सोचे-समझे प्रत्येक समस्या को सुलझाने के लिए एक ही विधि का उपयोग करे, और समस्या सुलझा न पाने के कारण स्वयं अपने-आप पर और दूसरों पर झल्लाये तो उसे क्या कहोगे?"
"मूर्ख!" सुदामा ने उत्तर दिया।
"वैसे ही एक प्राकृतिक नियम को बिना सोचे-समझे प्रत्येक स्थान पर लागू करना मूर्खता है।" कृष्ण बोले, "बड़ी सीधी-सी बात है कि जब भू-स्वामी अथवा भवन-निर्माता अथवा कोई भी ऐसा व्यक्ति श्रमिक को उचित और न्यायसंगत पारिश्रमिक न देकर, उन्हें विकृत आदर्शों में उलझा कर न्याय का पाखण्ड करता है, तो वह पशु-वृत्ति से परिचालित, अपने स्वार्थ से निर्देशित, अपने लिए असन्तुलित परिग्रह का कार्य कर रहा है। अतः वह दूसरों को उनके न्यायसंगत अधिकार से वंचित कर रहा है। यह प्रकृति के सन्तुलन को बिगाड़ने का प्रयत्न है। अतः श्रमिकों के मन में उठने वाला आक्रोश सत्य है; और प्रकृति के नियमों के अनुकूल है ऐसे में उन्हें अन्याय के विरुद्ध संघर्ष कर प्रकृति का सन्तुलन स्थापित करना होगा।"
"तुम्हारा अभिप्राय है कि श्रमिक द्वारा उचित पारिश्रमिक की इच्छा, तुम्हारे कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं जाती?" सुदामा ने प्रायः सहमत होते हुए कहा।
"एकदम नहीं।" कृष्ण जैसे अपने पिछले क्रम में ही बोलते जा रहे थे, "कर्म के समग्र रूप को समझना होगा। परिश्रम उस कर्म का एक खण्ड है, उचित सामाजिक और आर्थिक सम्बन्धों का निर्माण उसका दूसरा खण्ड है।" कृष्ण क्षण-भर रुककर सहसा बोले, "निष्काम कर्म के अनेक आयाम हैं। यह वस्तुतः व्यक्ति के स्वार्थ को संयत करने का प्राकृतिक सिद्धान्त है। मैं मानव-निर्मित आदर्शों की बात नहीं कर रहा हूं सुदामा! मैं प्रकृति के सत्य की बात कर रहा हूं...।"
"मैं समझ रहा हूं।" सुदामा बोले।
"तुरन्त फल पाने की अपनी आतुरता में मनुष्य सदा ही कम पाता है।" कृष्ण बोले, "तुम्हें कोई कहे कि एक पत्र लिख दो, उसके बदले में धन की एक निश्चित राशि दूंगा। और तुम उस राशि के लोभ में पत्र लिखने बैठ जाओ। दूसरा कहे कि मेरी प्रशस्ति लिख दो तो इतना धन दूंगा, तो तुम उसकी प्रशस्ति लिखने बैठ जाओ। यदि इसी प्रकार तुरन्त फल की इच्छा लिये तुम जीवन-भर अपनी लेखनी चलाते रहो तो तुम्हें क्या मिलेगा?"
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