पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
बारह
रात के भोजन के पश्चात् जब कृष्ण और सुदामा अकेले हुए तो सुदामा बोले, "कृष्ण! तुम्हारी बातें मेरे मन में उमड़ती-घुमड़ती हैं तो कुछ प्रश्न उठते हैं।"
"तो अच्छा ही है।' कृष्ण बोले, "बहुत नींद न आयी हो, तो उन्हीं प्रश्नों के विषय में बातचीत कर लें।"
"हां, मैं सोच रहा था," सुदामा बोले, "यदि एक उद्योगपति अपने श्रमिक से कहता है कि वह कर्म करे, फल की कामना न करे, फल उसे भगवान देगा. तो क्या तुम्हारा सिद्धान्त वहां श्रमिकों के शोषण का कारण नहीं बन रहा। निष्काम कर्म का अर्थ क्या हुआ? क्या खेत-कम्मकर भू-स्वामी से अपने परिश्रम के लिए अधिक पारिश्रमिक न मांगे? ईंटें ढोने वाला श्रमिक भवन-निर्माता से उचित पारिश्रमिक न मांगे?
कृष्ण मुस्कराये, "मैं कहता हूं कि श्रमिक, खेत-कम्मकर, ईंटें ढोने वाला भारिक अपना पारिश्रमिक तय करके काम करे। पर जब पारिश्रमिक तय हो जाये तो श्रमिक कुदाल या हल चलाने में, ईंटें ढोने में निष्काम कर्म का सिद्धान्त स्वीकार करे। निष्काम कर्म का अर्थ और कुछ भी नहीं है, सिवा इसके कि व्यक्ति, जब जो कार्य कर रहा हो, उसे किसी अन्य वस्तु का साधन न मानकर, उस मन लगाये। ऐसे में प्रकृति उसे उसके कर्म का उसकी अपेक्षा से अधिक फल देगी।" कृष्ण ने रुककर सदामा को निहारा, "भू-स्वामी अथवा भवन-निर्माता यदि श्रमिक के शोषण के लिए निष्काम कर्म की बात करता है, तो वह एक प्राकृतिक सत्य को अपने स्वार्थ के अनुसार, विकृत आदर्श बनाने का प्रयत्न कर रहा है। अर्थात् प्रकृति मनुष्य के कर्म का फल देती है। उस फल से एक मनुष्य को वंचित करने के लिए दसरा मनुष्य षड्यन्त्र करता है। प्रकृति के दिये हुए फल के वितरण में वंचना न हो, इसके लिए मानव-समाज को उचित रूप में संगठित करना होगा। यदि समाज द्वारा यह कर्म नहीं होगा तो उस अकर्म का दण्ड प्रकृति अवश्य देगी।...तुमने कुछ थोड़ा-बहुत गणित तो पढ़ा ही होगा!"
"हां! क्यों नहीं।" सुदामा बोले, "थोड़ा-बहुत तो पढ़ाता भी हूं।"
"तो मित्र! उसमें क्या ऐसा नहीं होता कि गणितज्ञ को यह देखना पड़ता है कि किस समस्या को सुलझाने के लिए गणित की कौन-सी विधि लागू होगी?"
"हां, विधि की खोज तो पहला काम है।" सुदामा की उत्सुकता कुछ प्रखर हो आयी थी।
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