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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


"धन की एक निश्चित राशि।"

"तब क्या तुम दर्शनशास्त्र का ग्रन्थ लिख पाओगे?"

"नहीं।"

"यश और ख्याति अर्जित करोगे?"

"नहीं।"

"तुम्हारी रचनाएं अमर होंगी?"

"नहीं।"

"और यदि ध्यान से देखा जाये तो मेरी मान्यता है कि तुम्हें धन की दृष्टि से भी निष्काम भाव से लिखा गया दर्शन ग्रन्थ हानि में नहीं रहने देगा।...और सुदामा!" कृष्ण की दृष्टि शून्य में खो गयी, "व्यक्ति की दृष्टि और उसके नाप की कसौटी बहुत संक्षिप्त है। बहुत छोटी है। वह सब कुछ तत्काल अपने लिए ही चाहेगा तो मानवता का कल्याण कभी नहीं होगा। हमें अपने 'स्व' का विस्तार करना होगा। हमें अपने समाज ही नहीं सम्पूर्ण मानवता की दृष्टि से सोचना होगा-अपनी ही पीढ़ी नहीं, अगली पीढ़ियों के विषय में भी सोचना होगा।" वे जैसे किसी और लोक का भ्रमण कर लौट आये थे, "स्वार्थी बहुत दूरदर्शी नहीं होता। वह स्वयं को चतुर समझता है, किन्तु होता वह मूर्ख ही है। जिन्होंने अन्यायपूर्वक, अधर्म से धन का परिग्रह कर लिया है-वे समझते हैं कि उन्होंने एक शक्ति अर्जित की है। पर वे यह नहीं समझते कि वस्तुतः उन्होंने जिन्हें वचित किया है, उनकी शत्रता ही अर्जित की है। उनकी अगली पीढी उस संचित धन के कारण आलसी, विलासी और शोषक होगी। ऐसे लोग प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ते हैं, अतः प्रकृति उनका अस्तित्व नहीं चाहती। जब यह असन्तुलन बहुत बढ़ जाता हैप्रकृति के लचीलेपन से भी आगे तक-तो मानवता उनका नाश कर देती है। इसका प्रमाण विभिन्न जातियों, समाजों और परिवारों की पीढ़ियों का इतिहास है। आवश्यक नहीं कि यह सब कुछ एक व्यक्ति अपने ही जीवन-काल में देख सके। प्रकृति की इकाई, मनुष्य की इकाई से बहुत बड़ी है...।"

"अच्छा, इसे छोड़ो। मुझे एक बात बताओ।" सुदामा ने सहसा बातों की दिशा मोड़ दी।

"पूछो।"

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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