पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
कृष्ण बोले तो उनका स्वर भी स्वप्निल था, जैसे वे किसी और लोक से बोल रहे हों, "संसार में न तो राक्षसत्व की कोई सीमा है सुदामा, और न देवत्व की। कल्पना करो एक समाज की, जहां यद, भोज, अन्धक और वृष्णियों की कितनी ही जातियों ने मिलकर अपने लिए एक गणतान्त्रिक शासन-व्यवस्था की हो और उस व्यवस्था के प्रधान के रूप में राजा उग्रसेन को शासन के अधिकार दिये हों। पर व्यवस्था की स्थापना कर वे उसकी ओर से असावधान हो गये। वे भूल गये कि प्रकृति निरन्तर सचेत और गतिशील है। असावधानी भी तो अकर्म ही है। उसकी असावधानी का परिणाम यह हुआ कि राजा का पुत्र, अपने पिता के महत्त्व का अनुचित लाभ उठाता हुआ क्रमशः राजनीतिक सत्ता हस्तगत करता रहा। अपना संगठन बनाता रहा। और उस सम्पूर्ण समाज को, जो स्वयं को उग्रसेन की प्रजा मानता था, इन तथ्यों का पता उस दिन लगा, जब कंस उग्रसेन को कारागार में डाल, सम्पूर्ण राज्याधिकार अपनी मुट्ठी में समेट, उनकी गणतान्त्रिक व्यवस्था को नष्ट कर, स्वयं एकछत्र राजा बन चुका था। वह समाज, जिसने स्वयं एक व्यक्ति को राजनीतिक अधिकार देकर, अपना प्रधान बनाया था, तब इतना असमर्थ हो चुका था कि कस के अत्याचार के विरुद्ध एक शब्द कहने में भी भय का अनुभव करता था। कंस ने समाज की अकर्मण्यता तथा .असावधानी का लाभ उठाकर राजनीतिक संगठन को सर्वथा असामाजिक तत्त्वों से भर दिया था। समाज के हित के लिए नहीं, अपने स्वार्थ के लिए। निहित स्वार्थों से प्रेरित अन्यायी लोग विभिन्न अधिकार और शक्तियां संभाले बैठे थे। व्यवस्था ऐसी भ्रष्ट हो गयी थी कि उसमें चरित्रवान् व्यक्ति टिक ही नहीं सकता था। भ्रष्ट व्यवस्था का पहला लक्षण यह है कि उसमें भ्रष्ट व्यक्ति समाज के शीश पर स्थापित होने लगता है; अधिकार और शक्ति उन हाथों में संचित होती चली जाती है, जो उसका सन्तुलित, न्यायसंगत, बहुजन हिताय उपयोग करना जानता ही नहीं। भौतिक सख-सम्पत्ति पर उसी स्वार्थी का आधिपत्य हो जाता है और अपने इस शोषणजन्य संचय के कारण वह समाज में सम्मानित और अग्रगण्य हो जाता है। ऐसे समाज में आतंक का शासन होता है। भले लोग दुर्बल, भीरु और असंगठित हो जाते हैं। ऐसा ही समाज कंस ने बना डाला था। नहीं तो क्या यह सम्भव था कि एक निराधार प्रचार से आशंकित होकर वह वसुदेव और देवकी जैसे गणमान्य दम्पति को बन्दी बनाकर कारागार में डाल देता और स र्ण यादव समाज में से कोई उसका विरोध न कर पाता। और कौन जानता है कि शूरों को हतवीर्य करने के लिए ही उसने स्वयं ऐसा प्रचार किया हो। फिर एक-एक कर उसने देवकी के सात नवजात शिशुओं की हत्याएं की..." कृष्ण का स्वर भर्रा आया था, "यह तो सर्वविदित है, क्योंकि उसका सम्बन्ध समाज के महत्त्वपूर्ण लोगों से था। उस वर्ग से था, जो किसी-न-किसी रूप में शासन से सम्बद्ध था। किन्तु सामान्य प्रजा और गोप-गोपिकाओं की कितनी सन्तानों को मृत्युदण्ड दिया गया होगा-यह कौन जानता है। उस सम्पूर्ण जाति का कैसा-कैसा शोषण न किया गया होगा...।"
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