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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


सुदामा ने बड़ी कठिनाई से अपने मुख से निकलती चीख रोकी।...अद्भुत है यह व्यक्ति! एक ओर यह जम्बूद्वीप की विभिन्न राजधानियों में हो रही राजनीतिक उठा-पटक, मानवीय हिंसा-प्रतिहिंसा के इतिहास की सूक्ष्मताओं में उलझा हुआ है और दूसरी ओर सुदामा से हुई बातचीत...।

सुदामा को अपनी बात याद करने के लिए थोड़ा प्रयत्न करना पड़ा।

"मैं यह कह रहा था कि यदि मनुष्य यह मान ले कि जो कुछ हो रहा है, वह प्रकृति की इच्छा से ही हो रहा है, इसलिए वह सब उचित है; तो संसार में होने वाला समस्त अन्याय, दमन, शोषण, पाशविकता-सबको उचित ठहरा दिया जायेगा। कहीं कोई विरोध नहीं होगा, कहीं प्रतिकार नहीं होगा।' सुदामा चिन्तित हो गये।

"नहीं," कृष्ण पूर्णतः आश्वस्त थे, जैसे उन्होंने इस पक्ष पर भी पहले से ही मनन कर रखा हो, "प्रकृति बाहर की घटनाओं में ही तो नहीं है। मनुष्य का मन, उसकी भावनाएं, उसकी चेतना-यह भी तो प्रकृति ही है। सुख और प्रमाद के समय चाहे उसकी चेतना दब जाये, किन्तु दुःख, पीड़ा और यातना में चेतना का स्वर मुखर होकर उसके सम्मुख आता है। मैंने कहा न कि सन्तुलन स्थापित करने के लिए प्रकृति ही प्रकृति के विरुद्ध लड़ रही है। अन्याय, दमन, शोषण तथा अत्याचार को समाप्त करने का आह्वान भी तो प्रकृति का ही आहान है। इस धरती पर अपने लाखों वर्षों के जीवन में, मनुष्य के हृदय में से यह भावना कभी मिटी नहीं। केवल स्वार्थ के क्षणों में मनुष्य इस आह्वान को सुन नहीं पाता, अन्यथा यह ज्योति सदा उसके हृदय में जलती रहती है।"

सुदामा ने देखा, कृष्ण जैसे किसी स्वप्न में खो गया था। उसके सामने से सुदामा जैसे कहीं विलीन हो गये थे और कृष्ण के आसपास कुछ ऐसा घनीभूत हो आया था, जो उनकी चेतना पर छा गया था।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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