पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
कृष्ण कुछ रुके। पर सुदामा क्या कहते। वे तो अपना हृदय थामे चुपचाप कृष्ण के बचपन की करुण कथा सुन रहे थे। वे जानते थे जब-जब कृष्ण अपने परिवार पर होने वाले कंस के अत्याचार याद करते हैं, तो ऐसे ही विह्वल हो जाते हैं। उनके भीतर अत्याचार के विरुद्ध जो आक्रोश उठता है, वह उन्हें किसी भी पीड़ित का समर्थन करने के लिए प्रेरित करता है। उनके चिन्तन पर किया गया सुदामा का आक्षेप कदाचित् उन्हें उसी मनःस्थिति में ले आया था।
मैंने जब सुध संभाली," कृष्ण बोले, "तो यही पाया कि कंस के कृपापात्र जहांतहां घूमते हैं और छीना-झपटी, चोरी-डकैती, हत्याएं-अत्याचार करते हैं। मैं जहां पल रहा था, वह बाबा नन्द के घुमक्कड़ गोपालों का क्षेत्र था। कंस की सेनाओं का वहां सीधा शासन नहीं था; किन्तु यमुना पार वह क्या नहीं करता था। फिर भी नन्द बाबा के क्षेत्र में भी कंस का आतंक कम नहीं था। लोग अपने बच्चों के मुख से छीन-छीनकर दूध मथुरा नगरी में भेज देते थे। अपने पशुओं को अपने घरों से दूर वन में चराने से डरते थे। अपने क्षेत्र में आये प्रत्येक नये व्यक्ति को कंस के किसी अत्याचारी दूत के रूप में देखकर भयभीत हो जाते थे। आर्थिक और राजनीतिक शोषण की पराकाष्ठा थी...।" कृष्ण जैसे पुरानी घटनाओं को वर्तमान में जी रहे थे, "ऐसे में किसी की भी सहानुभूति यादवों के साथ होती; किसी की भी आत्मा कंस का नाश करने के लिए तड़प उठती। मैंने और मेरे साथियों ने पहले आर्थिक शोषण का विरोध करने के लिए ब्रज से दूध, दही, मक्खन और घी का यमुना पार जाना बन्द किया। ब्रज के वनों, यमुना तटों तथा पहाड़ियों पर सुरक्षा का संगठित प्रयत्न कर, उन्हें शत्र शन्य कर, गोधन के चरने का सुरक्षित प्रबन्ध किया। कंस द्वारा भेजे गये दुष्टों का वध किया। हम अत्याचार का विरोध तो करते, किन्तु अपनी सुरक्षा के लिए, कंस के सैनिकों के सम्भावित आक्रमण से बचने के लिए, सैनिक तथा अर्द्धसैनिक संगठन न बनाते तो हम कंस का आतंक समाप्त करने में कभी भी सफल न हो पाते।"
"किन्तु कंस ने ब्रज पर सैनिक आक्रमण तो किया ही नहीं।" सुदामा बोले।
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