पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
तभी कृष्ण ने कक्ष में प्रवेश किया।
"सो गये क्या सुदामा?"
सुदामा ने आँखें खोल दीं। क्षण-भर में उनके मस्तिष्क का आल-जाल विलीन हो गया। वे उठकर बैठ गये।
"कब आये?"
"बस आया ही हूं।" कृष्ण मुस्कराये, "तुम क्या करते रहे?"
"बस ऊंघता रहा।" सुदामा बोले, "तुम कहां-कहां हो आये?"
'मैं भी इधर-उधर भटकता ही रहा।" कष्ण धीरे-से बोले. "द्वारका में रहते हए. हस्तिनापुर की घटनाओं को अधिक प्रभावित नहीं किया जा सकता। पर, दो बातों का प्रयत्न तो मुझे करना ही है : एक तो यह कि वहां की घटनाओं की ठीक-ठीक सूचना, यथाशीघ्र हमें मिलती रहे। दूसरे, कौरवों को यह आभास होता रहे कि पाण्डवों के हित-अहित की हमें गम्भीर चिन्ता है। तीसरे, बलराम भैया का प्रभाव दुर्योधन को नियन्त्रित करता रहे।...बस ऐसे ही कुछ प्रबन्ध करता रहा।"
सुदामा कुछ बोले नहीं। उनके मन में दुःशासन का एक काल्पनिक चित्र उभरा.. कैसे द्रौपदी के मुख से कृष्ण का नाम सुनते ही उसके हाथ कांप गये होंगे और उसका सिर चकरा गया होगा।...कृष्ण द्वारका में रहते हुए भी, हस्तिनापुर की घटनाओं को प्रभावित कर सकता है...।
कृष्ण ने अपना मुकुट उतारकर एक चौकी पर रखा और आकर सुदामा के पास पलंग पर बैठ गये।
"सुदामा! प्रातः प्रद्युम्न के आने से पहले, तुम मेरे चिन्तन के किसी जोखिम की चर्चा कर रहे थे?"
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- अभिज्ञान