पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा को लगा वे घटनाओं के विषय में नहीं सोच रहे, गणित का कोई सरल-सा प्रश्न सुलझा रहे हैं। इस प्रकार व्यक्ति ठीक-ठाक विश्लेषण करता जाये तो वह भविष्यवक्ता हो सकता है। करने वाले को पता नहीं कि उसकी क्रिया कितनी दर जायेगी ...तभी तो कृष्ण कहता है कि कर्म करो, फल को प्रकृति की व्यवस्था पर छोड़ दो।...जब द्रुपद ने द्रोणाचार्य का तिरस्कार किया था, तब क्या पता था कि वह तिरस्कार किसी दिन कौरवों-पाण्डवों के युद्ध का कारण बन सकता है। जब द्रोणाचार्य ने द्रुपद को अपमानित कर उनका राज्य छीना तो क्या वे जानते थे कि इस क्रिया की प्रतिक्रिया में उनका प्रिय शिष्य अर्जुन उनके विरोधी पक्ष में जा मिलेगा। जब उन्होंने हस्तिनापर के राजाश्रय को एक उपलब्धि के रूप में ग्रहण किया तो क्या वे जानते थे कि इसके परिणामस्वरूप उनका पुत्र अश्वत्थामा, दुर्योधन जैसे क्रूर, अत्याचारी, अन्यायी, अविवेकी और व्यसनी की संगति में पड़ जायेगा?...एक कर्म कर व्यक्ति क्रिया-प्रतिक्रिया की श्रृंखला आरम्भ कर देता है। फिर वह स्वतन्त्र नहीं रह जाता। वह उस शृंखला में बंधता चला जाता है...
क्या इसी को नियति कहते हैं?
क्या नियत है-घटनाएं या नियम?
सुदामा कुछ देर सोचते रहे...संसार में प्रत्येक व्यक्ति या तो कुछ घटित करने के लिए प्रयत्नशील है या सम्भावित घटना को टालने के लिए। नियमों को बदलने का प्रयत्न कोई नहीं करता...नियम खोजे जाते हैं, उन्हें बदला नहीं जाता, कृष्ण भी कहता है कि प्रकृति के नियम ही सत्य हैं, उन्हें कोई नहीं बदल सकता...नदी की धारा मिट्टी को गला देती है, इसलिए घाट बनाने वाला पत्थर की सीढ़ियां बनाता है, यह प्रयत्न नहीं करता कि पानी मिट्टी को न गलाये...
नियम तो पूर्व-निर्धारित हैं ही।...मनुष्य के जन्म के, जीवन के, मृत्यु के। पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन...सबके स्वभाव, सबकी प्रकृति नियत है। इन पूर्व-निर्धारित नियमों के बीच ही तो मनुष्य कर्म करने को स्वतन्त्र है।...तो मनुष्य को अपनी नियति को भी पहचानना चाहिए और स्वतन्त्रता को भी। जो अपनी नियति को जितना अधिक जानेगा, वह उतना समर्थ होगा...जैसे कृष्ण है...जो और नये नियमों को खोजेगा, वह अपनी नियति को और अधिक जानेगा और अपेक्षाकृत स्वतन्त्र होगा...क्या ज्ञान-मुक्ति इसी का नाम है?...
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