पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सहसा सुदामा का ध्यान दूसरी ओर चला गया...ये राजे-रजवाड़े, बड़े-बड़े लोग, समाज के शिरोमणि! क्या धर्म है इनका? द्यूत क्रीड़ा और मद्यपान। इन्हें कोई नहीं कहता कि ये व्यसन हैं...राजाओं की शोभा नहीं। युधिष्ठिर जुआ खेलने से मना नहीं कर सके, क्योंकि वह राजाओं का खेल है और उसका निमन्त्रण अस्वीकार करने पर वे राज-समाज में हास्यास्पद हो जायेंगे। व्यसन और दुर्गुण भी राजाओं की शोभा हैं क्या?...और फिर उनकी सभा में विवाद होता है कि यदि युधिष्ठिर चूत में स्वयं को पहले हार चुके थे तो उन्हें द्रौपदी को दाँव पर लगाने का अधिकार था या नहीं? कोई यह नहीं कहता कि जुए में किसी मनुष्य को दाँव पर लगाने का किसी को अधिकार हो ही कैसे सकता है? स्वयं अपने-आपको भी नहीं! छोटे भाई और पत्नी क्या क्रीत दास हैं कि उन्हें इस प्रकार हारा-जीता जाये और उसके नियमों के विषय में तर्क-वितर्क किये जायें। इस राज-समाज के धर्म का आधार ही अनुचित है...और कैसा है यह धृतराष्ट्र! दुर्योधन जैसे दुष्ट और अत्याचारी बेटे पर प्राण छिड़कता है...यही होता है मोह! जिससे विवेक मर जाता है। ...सुदामा को बाबा की याद हो आयी। एक वे हैं कि जिनके लिए अपने-पराये का कोई भेद नहीं है। और एक यह है...।
सुदामा के मन ने एक दूसरी करवट ली। क्या यहां कृष्ण का कर्म और फल का सिद्धान्त कार्य नहीं करता, क्रिया और प्रतिक्रिया का? द्रुपद और द्रोणाचार्य में कुछ वैमनस्य हुआ। पता नहीं दोष किसका था, पर द्रुपद ने शायद द्रोणाचार्य का तिरस्कार किया। प्रतिक्रियास्वरूप द्रोणाचार्य ने अर्जुन और भीम की सहायता से द्रुपद को पराजितअपमानित कर उसका आधा राज्य छीन लिया। उसकी प्रतिक्रिया में द्रुपद ने कृष्ण की सहायता से स्वयंवर के माध्यम से अर्जुन को अपना जमाता बनाकर शिष्य को गुरु के विरुद्ध खड़ा कर दिया। उसकी प्रतिक्रिया में द्रोण ने पाण्डवों पर से संरक्षण का हाथ उठाकर दुर्योधन को पूरी छूट दे दी। दुर्योधन ने राज्य के बंटवारे के नाम पर इन्द्रप्रस्थ के खण्डहर और खाण्डवप्रस्थ के वन देकर वस्तुतः देश निकाला दे दिया। उसकी प्रतिक्रिया में कष्ण की सहायता से पाण्डवों ने इन्द्रप्रस्थ को जम्बद्वीप का सबसे सम्पन्न राज्य बना दिया। उनकी सम्पन्नता से दुर्योधन की प्रतिहिंसा और अधिक भड़की। प्रतिक्रिया में हस्तिनापर में धत-क्रीड़ा हुई। पाण्डवों का राज्य चाहे वापस मिल गया. किन्तु द्रौपदी का अपमान हो चुका है और पाण्डव, कौरवों में से अनेक के वध का संकल्प कर चुके हैं..यह क्रिया-प्रतिक्रिया की श्रृंखला यहीं तो नहीं रुकेगी। यह तो अभी और आगे बढ़ेगी। सम्भवतः कृष्ण के मन में भी यही है। हो सकता है कि निकट भविष्य में कौरव और पाण्डव रण-सज्जित हों। युद्ध में अन्य राजा लोग भी एक या दूसरे के पक्ष में खड़े होंगे।...युद्ध हुआ तो बहुत भयंकर होगा। युद्ध के परिणामस्वरूप जो क्षय होगा, उससे यह सम्पूर्ण भूखण्ड धन और जन की क्षति से कंगाल हो जायेगा। देश की प्रतिभा नष्ट हो जायेगी। सैनिक दृष्टि से दुर्बल हो जायेगा। बाहरी जातियों के आक्रमण होंगे। परतन्त्रता आयेगी...
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