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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


पर ये लोग कैसे रहते होंगे ऐसे वातावरण में। दुर्योधन और उसके मित्र तो निपट शोहदे और अपराधी मनोवृत्ति के लोग हैं। उनके लिए न गुरुजनों का सम्मान कोई महत्त्व रखता है और न कुल की मर्यादा। जहां शासक वर्ग ऐसा हो, वहां प्रजा के सम्मान और सम्पत्ति की रक्षा कौन करेगा। उसमें तो भीष्म पितामह का भी दम घुटता होगा। लगता है कि संसार भर के दुष्ट, क्रूर और अन्यायी अपराधी दुर्योधन के चारों ओर घिर आये हैं और वे लोग राजनीतिक सत्ता से सम्पन्न होकर संसार में से धर्म के नाश के अभियान पर निकले हैं...कर्ण को कितना धर्मात्मा सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। प्रतिदिन पूजा-पाठ, दान-पुण्य। अलौकिक रूप। और वीरता...पर है क्या? एक नारी को सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र करने को बढ़ावा दे रहा है और उस अपमानित नारी को व्यभिचारिणी बता रहा है...ऐसे होते हैं शरवीर और धर्मात्मा लोग? वह तो अपनी स्थिति के कारण भयंकर हीन भावना से पीड़ित व्यक्ति है, जो अपनी प्रतिहिंसा में संसार भर को नष्ट करने पर तुला हुआ है।...दुर्योधन ने एक बार अंग देश का राज्य देकर उसे अपमान से क्या बचाया, वह उसका क्रीत दास हो गया और उसके अधर्म, अन्याय और अत्याचार के लिए न केवल सहिष्णु हो गया, वरन् उसे बढ़ावा देने लगा। पाप का सबसे बड़ा समर्थक है यह कर्ण! महत्त्वाकांक्षा और प्रतिहिंसा मनुष्य को कितना नीच बना देती है...

किन्तु अद्भुत है यह पांचाली द्रौपदी! अपने स्वयंवर में भी इसने कर्ण को दुत्कार दिया था; और इस सभा में भी उसने अपने आत्मबल से ही अपनी और अपने पतियों की रक्षा की।...और कृष्ण के नाम पर कैसे दुःशासन कांपने लगा। कृष्ण की अनुपस्थिति में भी उसके नाम का इतना आतंक। उपस्थित पांचों पाण्डवों से दुःशासन नहीं डरा, किन्तु अनुपस्थित कृष्ण से डर गया। अद्भुत है कृष्ण भी! कंस की भरी सभा में घुसकर उसने कंस का वध कर दिया था। जरासंध के घर में घुसकर उसे ललकार कर मारा। राजसूय यज्ञ के उत्सव में शिशुपाल का वध कर दिया। कृष्ण अकेला भी कहीं घिर नहीं पाता। हस्तिनापुर के सभा-भवन में वह होता तो पाण्डवों के समान चुप नहीं रहता। अपने सुदर्शन चक्र से दुःशासन का सिर उतार लेता...यही सोचकर शायद दुःशासन का सिर चकरा गया होगा।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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