पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
कृष्ण खिलखिलाकर हंस पड़े, "अरे, तो इसमें संकोच की कौन-सी बात है। जो बच्चा छह महीने के वय में ही सागर से लड़कर जीत गया, वह तो उससे ऐसे खिलवाड़ करेगा ही।" सहसा कृष्ण की भंगिमा बदल गयी, "अच्छा चलो, अब लौट चलें। बहुत देर हो गयी है। रुक्मिणी रुष्ट होंगी।"
"आपको और किसी का भय तो है ही नहीं।" प्रद्युम्न ने आँखों की कोरों से अपने पिता को देखा।
"नहीं भाई! तुमसे भी भय लगता है।" कृष्ण पुनः हंसे, "तुमने बताया नहीं, तुम मुझे बुलाने आये थे क्या?"
"जी हां," प्रद्युम्न धीरे-से बोला, "हस्तिनापुर से समाचार आया है।"
"क्या समाचार है?"
"बड़े फूफाजी द्यूत में अपना सर्वस्व हार गये हैं-अपने भाइयों तथा बुआ द्रौपदी समेत, सब कुछ। दुर्योधन ने उनके साथ बहुत दुर्व्यवहार किया है-विशेषकर द्रौपदी बुआ के साथ।"
"मुझे पहले ही आशंका थी।" कृष्ण जैसे अपने-आपसे बोले और उन्होंने चप्पू उठा लिये।
उस क्षण से कृष्ण अपने भीतर कुछ ऐसे डूबे, जैसे वे वहां हों ही नहीं। किन्तु इस आत्मलीनता के कारण पहले उन्हें नौका चलाने और बाद में रथ हांकने में कोई परेशानी नहीं हुई। वे यन्त्रवत् ये सारे कार्य करते रहे।
सुदामा ने प्रद्युम्न को देखा : वह भी शान्त-मौन बैठा था। पिता के चिन्तन में उसने कोई बाधा खड़ी नहीं की थी। न कोई अतिरिक्त सूचना दी और न ही इस विषय में वार्तालाप या तर्क-वितर्क करना चाहा।...वैसे सुदामा को चिन्तित उन दोनों में से कोई भी नहीं लग रहा था। कृष्ण मानसिक रूप से जैसे कहीं और चले गये थे, किन्तु जहां कहीं गये थे, चिन्तित और परेशान वहां भी नहीं थे। वे अत्यन्त आत्मविश्वस्त दिखाई पड़ रहे थे।...वैसे भी समाचार देने आये प्रद्युम्न ने समाचार देने में कोई घबराहट नहीं दिखाई थी और न कृष्ण ने इस समाचार को इतने साधारण रूप से प्रस्तुत करने के विषय में कुछ कहा था।
पिता और पुत्र-दोनों ही जीवन में बड़ी-बड़ी कठिनाइयों, जोखिमों और संघर्षों को झेले हुए थे।...सुदामा सोच रहे थे...'यह सब सुदामा जैसे दार्शनिक के बस का नहीं था। उन्हें तो एक छोटी-सी दुर्घटना भी इतना उद्विग्न कर जाती थी कि वे अपना सन्तुलन खो बैठते थे।'
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