पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा को कृष्ण के स्वर में अपने पुत्र के लिए अपार स्नेह झलकता दिखाई दिया।
"आप घर पर नहीं मिले तो समझ गया कि आप चाचाजी को सागरतट दिखा रहे होंगे।"
सुदामा ने दृष्टि उठाकर देखा। प्रद्युम्न उन्हें चाचाजी कह रहा था। सुदामा के शरीर में एक सिरहन-सी उठी...प्रद्युम्न जैसा तरुण, वीर, विचित्रताओं से भरा हुआ...सुदामा, कृष्ण को ही नहीं, उनके सारे परिवार को स्वीकार्य थे, आत्मीय जन के रूप में परिजन...।
प्रद्युम्न अपनी नौका छोड़, उनकी नौका में आ गया।
"सुदामा! यह प्रद्युम्न है।" कृष्ण ने औपचारिक परिचय कराया, "मेरा बड़ा बेटा। इसे देखकर लगता है न कि बच्चे जवान हो रहे हैं और हम बूढ़े होते जा रहे।" कृष्ण ज़ोर से हंसे, "पर उससे अपने सामर्थ्य का भी बोध होता है...जिसका ऐसा शूरवीर पुत्र हो...।" कृष्ण ने ममता से अपने पुत्र को निहारा।
"ठीक कह रहे हो मित्र!" सुदामा इतना ही कह सके।
"चाचाजी! आपको द्वारका का सागरतट कैसा लगा?" प्रद्युम्न ने बड़े सम्मानपूर्वक सुदामा से पूछा।
"सुन्दर है।" सुदामा बोले, "बहुत सुन्दर है।''
"तुमने देखा ही क्या है?'' कृष्ण लीलापूर्वक उन्हें चिढ़ाते हुए से बोले, "एक तो इस बीच सागर अत्यन्त शान्त रहा है। ज़ोर की कोई लहर ही नहीं उठी। दूसरे, सागर को देखने के स्थान पर तुम दर्शन बघारते रहे। अरे, सौन्दर्य को देखने के लिए तो कृष्ण की आँखें चाहिए।" वे सुदामा के निकट खिसक आये, "तुम किसी दिन प्रद्युम्न की नौका में जाओ। सारा दर्शन भूल जाओगे। बीच ज्वार में ले जाकर नौका खड़ी कर देगा।"
"पिताजी!" प्रद्युम्न शिकायत के-से स्वर में बोला।
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