पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"अन्न उपजा लेना एक कार्य है और उसे बेचकर उसके विनिमय में धन प्राप्त करना दूसरा। जैसे ज्ञानार्जन एक कर्म है और उसका व्यापार कर धन कमाना दूसरा। अथवा ये एक समग्र कर्म के दो खण्ड हैं। किसान ने उन्न उपजाने के लिए कर्म किया तो उसे अन्न मिला; किन्तु उसने, उसके विनिमय में धन प्राप्त करने के लिए क्या किया? कुछ भी तो नहीं। व्यापारी, किसान से अन्न खरीदकर दूसरे स्थान पर बेचने का उद्यम करता है। इसलिए उस उद्यम का फल तो उसे मिलेगा ही; किन्तु साथ ही उसने एक सामाजिक कार्य भी किया है-संगठन। इस सामाजिक कर्म का फल उसे मिलता है-अपने उद्यम के अनुपात से कहीं अधिक लाभ-जो मानवीय न्याय की किसी भी कसौटी के अनुसार अनुचित है। यह लाभ उसे एक व्यवस्था देती है, जिसे उसने बनाया है और यह लाभ, किसान के असंगठन का शोषण करने के कारण ही सम्भव है। यहां किसान या उत्पादक, फिर अपने सामाजिक अकर्म के कारण दण्डित होता है। उसने ऐसी व्यवस्था बनाने के लिए, संगठित होकर क्या किया, जो परिश्रम के अनुपात में भी लाभ पाने की अनुमति दे? सामान्यतः लोग अपने वैयक्तिक कर्म में ही व्यस्त रहते हैं और अच्छा समाज तथा अच्छी व्यवस्था बनाने के लिए तनिक भी कार्य नहीं करते। इस प्रकार अपने सामाजिक अकर्म से, एक दुष्ट व्यवस्था बनाने में, प्रकारान्तर से सहायक होते हैं; और जब उस अकर्म का दण्ड उन्हें मिलता है तो उनकी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों हो रहा है।"
"तो भू-स्वामी, सामन्त और व्यापारी के असन्तुलित लाभ और किसान की बुरी स्थिति के लिए दोषी, उसके सामाजिक अकर्म द्वारा संगठित हो गयी भ्रष्ट व्यवस्था है?"
"मैं उसे दोषी नहीं कहता। अपने कर्म-सिद्धान्त की शब्दावली में उसे अकर्म का फल कहता हूं।" कृष्ण बोले, "यह व्यवस्था सामाजिक है। उस का स्वरूप निर्भर करता है राजनीतिक व्यवस्था पर। जो समाज राजनीतिक कर्म नहीं करता, अपने लिए अच्छी राजनीतिक व्यवस्था बनाने की ओर ध्यान नहीं देता, उसे उस अकर्म का फल मिलता है-भीतरी शोषण और बाहरी शक्तियों के आक्रमण के रूप में। मानव समाज का कोई खण्ड जड़ हो जाये तो हो जाये, किन्तु प्राकृतिक व्यवस्था नहीं रुकती। प्रकृति क्रियाशील है, वह कर्म का तत्काल फल देती है और अकर्म का दण्ड।"
"प्राकृतिक व्यवस्था के नहीं रुकने का क्या अर्थ हुआ?" सुदामा आश्चर्यचकित थे। सचमुच उन्होंने इस क्षेत्र में कभी कुछ नहीं सोचा था। कृष्ण के सिद्धान्तों का, सिद्धान्तों के रूप में ही अध्ययन नहीं किया, उन्हें सदा जीवन से जोड़ा है, "मनुष्य से अलग होकर स्वतन्त्र रूप से प्राकृतिक व्यवस्था कैसे चलेगी?"
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