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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


"सृष्टि बहुत बड़ी है, इसलिए प्राकृतिक व्यवस्था भी बहुत विराट है। मानव-समाज उसका एक छोटा-सा अंग है। मनुष्य से अलग होकर मानव समाज में प्राकृतिक व्यवस्था नहीं चलती।" कृष्ण बोले, "इसे सीमित क्षेत्र में सचमुच ही मनुष्य को छोड़कर दूसरा कोई उपकरण उसके पास नहीं है, किन्तु, मानव-मात्र भी विभिन्न समाजों में बंटा हुआ है। एक समाज कर्म करता है और उसका फल पाता हआ आगे बढ़ता जाता है। वह नये आविष्कार करता है, अपना उत्पादन बढ़ाता है, अपनी सामाजिक व्यवस्था ठीक करता है, अपने समाज के सदस्यों में अपने उत्पादनों को यथासम्भव समतापूर्वक वितरित करता है। उन्हें समान अधिकार देता है, मानव के हाथों, मानव का शोषण समाप्त करने अथवा कम-से-कम करने का प्रयत्न करता है।...वह समाज आगे बढ़ता है, शक्तिशाली बनता है।" कृष्ण प्रवाह में बोलते जा रहे थे, "और एक दूसरा समाज होता है, जहां सामाजिक कर्म के स्थान पर वैयक्तिक कर्म बल पकड़ लेता है। वहां निजी स्वार्थ की संकीर्णता प्रधान हो जाती है। अपने निजी स्वार्थ के लिए व्यक्ति समाज की बड़ी-से-बड़ी क्षति कर देता है। वह यह भूल जाता है कि समाज वह वायुमण्डल है, जिसमें उसे भी सांस लेनी है, यह वह कुआँ है, जिसमें से उसे भी पानी पीना है। वह यदि उस वायुमण्डल अथवा कुएं को दूषित करेगा तो वह दूषण उसके शरीर में भी प्रवेश करेगा; और तब वह स्वयं को बचाने के लिए कछ नहीं कर पायेगा। ऐसा समाज भीतर से खोखला होता जाता है। जहां सामाजिक कर्म नहीं होता, सामाजिक न्याय नहीं होता, सामाजिक निर्माण नहीं होता, वह समाज जड़ हो जाता है। आगे नहीं बढ़ता। वह प्राकृतिक शक्तियों की गति को रोकने लगता है। जब आगे बढ़ने की उसकी भीतरी शक्ति समाप्त हो जाती है और आगे बढ़ने की क्षमता उसमें पूर्णतः नष्ट हो जाती है, तब प्रकृति अपना कार्य करने के लिए ऐतिहासिक शक्तियों से काम लेती है। तब कोई-न-कोई विकसित समाज, बाहर से उस जड़ समाज पर आक्रमण करता है। किसी भी समाज अथवा राज्य पर, बाहरी आक्रमण यदि सफल हो जाता है तो वह पराजित समाज के सामाजिक अकर्म का फल है। विजयी समाज, पराजित समाज पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार करता है, उसका शोषण करता है। उसकी धन-सम्पत्ति का अपहरण करता है। प्राकृतिक व्यवस्था की ओर से ये सारे प्रयत्न पराजित समाज को चेताने के प्रयत्न हैं। विदेशी, विधर्मी, विजातीय लोगों का अत्याचार पराजित समाज के प्रमाद, अहंकार तथा जड़ता को तोड़ता है और उन्हें प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने का मार्ग दिखाता है, जो प्राकृतिक व्यवस्था की मूल प्रेरणा है।"

"किन्तु यह तो अत्याचार है कृष्ण!" सुदामा के स्वर में पीड़ा भी थी, आक्रोश भी, "प्रकृति-जिसने मनुष्य का निर्माण किया है-इतना अत्याचार क्यों चाहती है?"

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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