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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


"हां! क्यों नहीं पूडूंगा।"

"उत्तर स्पष्ट है कि जो कर्म उसने किया, उसका फल तो उसे मिला; किन्तु वह समग्र कर्म नहीं था, इसलिए समग्र फल उसे नहीं मिला। संकीर्णता अथवा एकांगिता में किया गया कर्म संकीर्ण और एकांगिक फल ही देगा; क्योंकि प्रकृति तो समग्र, सन्तुलित तथा जटिल व्यवस्था है। खेती करने वाले किसान के लिए यह जानना आवश्यक है कि कृषि के लिए भूमि की जुताई के साथ सिंचाई की आवश्यकता भी होती है। किन्तु सिंचाई की व्यवस्था व्यक्ति का नहीं, समाज का काम है। इसलिए, वहां सामाजिक कर्म की आवश्यकता होती है। जो समाज मिलकर अपने विकास के लिए कर्म नहीं करता, उसका व्यक्ति-कर्म भी बहुत फल प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए कृषक समाज के लिए आवश्यक है कि वह कृषि सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने, कृषि के उपकरणों और सुविधाओं को सुलभ करने के पश्चात् भूमि पर पसीना गिराये। अन्यथा वह व्यक्ति-कर्म व्यक्ति-फल ही देगा, जिससे समाज लाभान्वित नहीं हो पायेगा। किन्तु, जो समाज कृषि सम्बन्धी अनुसन्धान करने और उपकरणों को उपलब्ध करने का कर्म पहले कर लेता है और तब उपज के लिए सामूहिक अथवा वैयक्तिक कर्म करता है-वह उसका पूर्ण तथा समग्र फल प्राप्त करता है।" कृष्ण रुके, "और मान लो कि उपज तो हो जाती है, खेत लहलहा उठते हैं या फसल पककर धरती पर सोना बिखेर देती है और तब उसे पशु चर जाते हैं, आग लग जाती है अथवा शत्रु उसे नष्ट कर जाते हैं...तब?"

"हां, तब?" सुदामा के मुख से अनायास ही उसी भंगिमा में निकला।

"तब यह समझना होगा कि उपज के लिए जो कर्म किया गया था, उसका फल तो मिला; किन्तु उसकी रक्षा के लिए कोई कर्म नहीं किया गया था, इसलिए उस अकर्म का दण्ड भी मिला। प्रकृति कर्म का फल तत्काल देती है; किन्तु अकर्म का दण्ड भी उसी शीघ्रता से प्रदान करती है। मनुष्य और प्रकृति के इस निरन्तर संघर्ष का उदाहरण मैं मैदान और पगडण्डी से देता हूं। जिस पथ पर सैकड़ों लोग प्रतिदिन चलते हैं, वहां घास नहीं उगती और पगडण्डी बन जाती है। पर मनुष्य के पग रुके और प्रकृति ने उसे अपनी शक्ति का प्रमाण दिया। वहां तत्काल घास उगेगी, पौधे और वृक्ष उगेंगे। जीव-जन्तु आयेंगे। मनुष्य का प्रयत्न रुकते ही तुमने प्रासादों को खण्डहर बनते नहीं देखा क्या? प्रकृति तुरन्त बताती है कि कहां अकर्म रह गया है। इसलिए व्यक्तिगत और सामाजिक धरातल पर अपने उत्पादन और सम्पत्ति की रक्षा का प्रयत्न भी करना होगा।" क्षण-भर को कृष्ण रुके, "जब यहां तक हो जाये, तब प्रश्न उठता है कि उपज के उस फल का, जिसके विषय में तुमने प्रश्न किया है सुदामा! कि उपज किसान की और उसके बदले में धन मिलता है भू-स्वामी, सामन्त और व्यापारी को।"

"हां!" सुदामा केवल एक ही शब्द कह सके।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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