उपन्यास >> न आने वाला कल न आने वाला कलमोहन राकेश
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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...
विकल्प तीन-जेबों में हाथ डाले लोअर माल का एक चक्कर लगा लिया जाय। एकाध डब्बी सिगरेट खरीदकर फूंक डाली जाए। फिर इस तरह घर की तरफ लौटा जाए जैसे उतनी देर बाहर रहकर किसी से किसी चीज़ का कुछ तो बदला ले ही लिया हो।
विकल्प चार...
मैं सोया-चेयर से उठ खड़ा हुआ। इनमें से कुछ भी करने में कोई तुक नहीं था क्योंकि सब बातें पहले की आजमाई हुई थीं। कमरे में जाकर मैंने स्कूल से आया टिफिन कैरियर खोल लिया। खाना गरम करने की हिम्मत नहीं हुई, इसलिए दो बोटी ठण्डा गोश्त सूप के साथ निगल लिया। फिर टिफिन के जूठे डब्बों को इस तरह गुसलखाने में पटक दिया जैसे कि खाने के बदमज़ा होने की सारी ज़िम्मेदारी उन्हीं पर हो।
‘मुझे पता है, मैं क्या चाहता हूँ,’ गुसलखाने का दरवाज़ा बन्द करते हुए मैंने सोचा फिर उसे करने में मुझे इतनी रुकावट क्यों महसूस हो रही है ?’
खट् खट् खट् साथ के पोर्शन से आती आवाज़ ने कुछ देर के लिए ध्यान बँटा दिया। कोहली की बीवी शारदा खड़ाऊँ पहने अपने गुसलखाने की तरह जा रही थी। शाम के सात बजे से लेकर रात के दो बजे तक वह जाने कितनी बार गुसलखाने में जाती थी। कभी गुरदे साफ करने के लिए, कभी प्लेटें धोने के लिए और कभी अन्दर बन्द होकर रोने के लिए। बीच में पक्की दीवार होने के बावजूद उसकी खड़ाऊँ से मेरे पोर्शन का फर्श भी हिल जाता था। आधी पात को तो लकड़ी के फर्श पर वह खट् खट् की आवाज़ बहुत ही मनहूस लगती थी।
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