उपन्यास >> न आने वाला कल न आने वाला कलमोहन राकेश
|
6 पाठकों को प्रिय 361 पाठक हैं |
तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...
मैं बरामदे में आकर अपनी पढ़ने की मेज़ के पास बैठ गया। चिट्ठी लिखने का कागज़ निकालकर सामने रख लिया। कलम खोल लिया। फिर भी तब तक अपने को लिखने से रोके रहा जब तक शारदा के पैरों की खट्-खट् गुसलखाने से वापस नहीं आ गई। उसके बाद लिखना शुरू किया-‘प्रिय शोभा....’
मन में यह पत्र मैं कई बार लिख चुका था। लिखकर हर बार मन में ही उसे फाड़ दिया था। उस समय वे दो शब्द कागज़ पर लिख लेना मुझे काफी हिम्मत का काम लगा। मैं कुछ देर चुपचाप उन्हें देखता रहा। कैमल रंग के दानेदार कागज़ पर वे दोनों शब्द ‘प्रिय’ और ‘शोभा’ सतह से ऊपर को उठे-से लग रहे थे। दोनों अलग-अलग। बल्कि सभी अक्षर अलग-अलग प्रि य शो भा। मैंने उन अक्षरों पर लकीर फेर दी और कागज को मसलकर टोकरी में फेंक दिया। एक कोरा कागज़ लेकर फिर से लिखना शुरू किया शोभा।
रुककर जेबें टटोली। डब्बी में एक ही सिगरेट था। सोचा कि अगर घूमने निकल गया होता, तो कुछ सिगरेट तो और खरीद ही लाता। छः आठ सिगरेट पास में होते तो पत्र आसानी से पूरा किया जा सकता था।
मैंने सिगरेट सुलगा लिया। बस पहली पंक्ति लिखना ही मुश्किल था। उसके बाद बाकी मजमून के लिए रुकने की सम्भावना नहीं थी।
|