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उपन्यास >> न आने वाला कल

न आने वाला कल

मोहन राकेश

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4420
आईएसबीएन :9788170283096

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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...


सोफा चेयर पर मुझे काभी असुविधा हो रही थी। रोज होती थी। उसके स्प्रिंग अपेक्षाकृत कम चुभते थे, पर चुभते तो थे ही। वे शिवचन्द्र नरुला लकी बैठन के अनुसार ढले थे। या उससे पहले जो हिंदी मास्टर था, उसकी। पर जिस किसी की बैठन के अनुसार ढले हों, पिछले तीन सालों में वे मेरी बैठन के आदी नहीं हो पाए थे। हम दोनों के बीच एक बेगानापन था, जिसकी शिकायत हम दोनों को रहती थी। अपनी-अपनी शिकायत का गुस्सा भी हम एक-दूसरे पर निकालते रहते थे। वह मुझे स्प्रिंग चुभोकर, मैं उस चुभन को पीसकर। साधारणतया होना यह चाहिए था कि इतने अरसे में मेरी बैठन उन स्प्रिंगों के मुताबिक ढल जाती। पर ऐसा हुआ नहीं था। मेरी बैठन का अपना कसाव स्प्रिंगों के कसाव से कम नहीं था। यह अब और ऐसे नहीं चल सकता’, और अपनी बैठन और स्प्रिंग के बीच हाथ रखे सोचा। ‘जो भी निश्चय करना हो, वह अब मुझे कर ही लेना चाहिए।’’

लेकिन क्या निश्चय ?
मैं उन सब विकल्पों पर विचार करने लगा जिनके सहारे अपने को इससे आगे सोचने से रोका जा सकता था।
विकल्प एक-उठकर कपड़े बदले जाएँ। खाना बाहर किसी होटल में खाया जाए। फिर रात को शो देखकर सोने के समय घर लौटा जाए-अर्थात् जब बीच का पूरा अन्तराल तय हो चुका हो।
विकल्प दो-ड्रेसिंग गाउन पहनकर एन.के.के. यहां चला जाए। दो घंटे उससे उसकी प्रेमिका अर्थात् होने वाली पत्नी के पत्र सुने जाएँ। फिर सुबह तक उसके उस खाली बिस्तर में दुबक रहा जाए जो उसने अभी से फरवरी में होने वाली अपनी शादी की प्रतीक्षा में बिछा रखा है।

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